कविता

लज्जा

लज्जा मुझे नहीं आती
क्योंकि आधुनिकता ने
लज्जा से मुक्त कर दिया है।
मान सम्मान सभ्यता से दूर
मुझे न कोई चिंता, न फिक्र
माँ बाप का जीना मरना
दुःख सहना उनका कर्म है,
आवारागर्दी करने,गुलछर्रे उड़ाना ही
मेरा धर्म है।
जब मेरे बाप को
अपने बाप पर तरस नहीं आया,
तो फिर लाज शर्म के चक्कर में
मैं अपनी बिगाड़ू क्यों काया?
लज्जा भी हमसे दूर रहती है
लज्जा हीन के पास आकर ही
क्या वो सूकून पाती है?
इसलिए भाषण बंद कीजिये
जिसे लज्जा आती हो,
जाकर उसकी खोज कीजिए।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921