कविता

आखिर पिता हूं

मैं पिता हूं
अपने बच्चें से प्यार करता हूं
वो बड़ा हो गया है
अपने भविष्य के लिए
शहर से बाहर चला गया है
मैं अकेला रह गया हूं
उम्र भी अब खिसकने लग गई है
कभी उसके बचपन के खिलौने देख खुश होता हूं
याद करने लगता हूं
पुलिस की उस गाड़ी को
जो खरीदी थी
गेट वे आफ इंडिया से
पहियों से उठकर
सायरन बजाती घूमती थी
बाल हठ कर गया था
उसे लेने को
आंखो में घूम जाता है
वो गेट वे आफ इंडिया का दृश्य
कुछ पल उसी पल में
गुजार लेता हूं
पिता हूं न मैं
कभी पलटकर पुराना फोटो एलबम
वाकर में बैठे उसे देख
ख़ुश हो लेता हूं
स्कूल के फोटो ग्रुप में
बच्चों के बीच
खोजता हूं
आंखे कमजोर हो गई है न
कुछ धुंधला दिखने लगा है
सजा कर रखी हैं
शोकेस में
उसकी छोटी छोटी
खिलौने वाली गाड़ियां
जब भी जाता था कहीं बाहर
मालूम था लौटने पर मेरे
वो जरूर पूछेगा
मेरी लिए कार लाए क्या
मुझे भी याद रहता था
उसके लिए
एक दो कार
खरीद कर लाना
छू कर अहसास करता हूं
उन कारों को
जैसे स्पर्श कर लिया हो
बच्चे के हाथों को
आखिर पिता हूं न

*ब्जेेेेेे्जेेेेे्जेेेेेे्जेेेे्जेेेेेे्ज

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020