छंद
मुश्किलों से खेलकर धूप छांव झेलकर ,हर एक पेट को ये अन्न उपजाते हैं ।
मिट्टी से यह सने हुए पर्वतों से तने हुए ,खेत की ये मेंढ पर तन झुलसाते हैं ।।
धुर कश्मीर से यह कन्याकुमारी तक ,जीत कर क्षुधा मन – मन मुस्कुराते हैं ।
इनकी ही तपस्या से समृद्धि – वृष्टि होती है धरती के ये आनंद- घन कहलाते हैं ।।
ये मौसमे बहार भी खिजां सा लगा लगने ,छीनी जग की हरियाली इस कोरोना ने ।
चौपट हुए सभी के धंधे गांव शहर में, खा ली है सारी खुशहाली इस कोरोना ने ।।
राग रंग फीके फीके सारे हो गए देखिए , नीरस की ईद दिवाली इस कोरोना ने ।।
फूलों की महक भी है सहमी हुई लगती , की है उदास डाली डाली इस कोरोना ने ।।
— अशोक दर्द