मुझको वृंदावन जाना है
मैं प्रेम भरी एक बदली हूँ
मुझको वृंदावन जाना है
बरसूँगी नित बरसाना में
जिसके कण-कण में कान्हा है,
अंबर के आँचल से निकली
तब सुकूं धरा को दे पायी
भावों की सरिता का जल ले
मैं कुंज गली में हूँ आयी
गिरधर के दर्शन की प्यासी
चरणामृत अब बन जाना है
बरसूँगी नित बरसाना में
जिसके कण-कण में कान्हा है
जब से विरहा की तपिश बढ़ी
सूखी है धरती गोकुल की
राधा सँग गोपी भी व्याकुल
अनुताप बढ़ी यमुना जल की
श्यामा के पावन जल में मिल
मुझको ये ताप घटाना है
बरसूँगी नित बरसाना में
जिसके कण-कण में कान्हा है
सूना है हर घर और आँगन
हर कली- कली मुरझाई है
ना पुष्पित है कोई उपवन
ना मुदित हुई अमुराई है
रूठे – रूठे मेरे कान्हा को
विनती कर मुझे मनाना है
बरसूँगी नित बरसाना में
जिसके कण-कण में कान्हा है।।
— अनामिका लेखिका