कविता

परिवर्तन

यह बसंत……

कुछ अलग है ना उस बसंत से।

जब डोलते थे पात से हम,
झूमकर अनंत में
सागर की गहराई,
आकाश की ऊंचाई
मानो हम ही हम थे…
पीला अंबर, पीत पताका
पकड़े आंचल स्वर्णलता का
पाने को  जग सारा आतुर
कितने अनजाने से हम थे. ‌‌…….
स्वर्णभूमि सी सजी धरा थी
चिंता मन में न थी ज़रा सी
गाते फिरते धूम मचाते
थक जाते तो घर को जाते ।

बोझ किताबों का भी कम था
मौज मस्तियों का आलम था,
कूद-कूद बगिया में जाते
फल कहीं से फूल चुराते
फूलों की माला बनवा कर
गुड्डे गुड़िया का ब्याह रचाते,
छोटी छोटी खुशियां थी तब
छोटे छोटे थे सपने
बैर किसी से नहीं रहा तब
सब थे मेरे ही अपने।
बसंत पंचमी पर्व मनाते
मां सरस्वती को शीश झुकाते
पीत परिधान, पीला रुमाल
उस पर टेढ़ी-मेढ़ी चाल…..

अभी कुछ दिन पहले गांव से
मां का फोन आया था
बसंत पंचमी आने वाली है
उसने मुझे बताया था।
यहां कंक्रीटो के जंगल में
बसंत कहां दिखता है
हर शख्स यहां नित अपनी
एक नई गाथा लिखता है,
कुछ व्यस्त व्यस्त सा लगता है
भागमभागी में रहता है,
इसलिए यहां बसंत का मौसम
कुछ जुदा-जुदा सा लगता है।

अमृता पान्डे

मैं हल्द्वानी, नैनीताल ,उत्तराखंड की निवासी हूं। 20 वर्षों तक शिक्षण कार्य करने के उपरांत अब लेखन कार्य कर रही हूं।