सामाजिक

महिलाओं को बराबरी और हक़ की पुकार !

उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले में एक छोटा सा गांव है। आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व एक गरीब परिवार के घर एक कन्या का जन्म हुआ। उसके माता पिता ने उसका नाम रखा सरोज रखा। बचपन में गॉव में पली सरोज जब जवान हुई तो जैसे आम देश के माता पिता को होती है, उसके माता पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी और फिर उसकी शादी पास के गांव के एक परिवार में रामदीन नामक आदमी से कर दी जो सरोज के 14 वर्ष से 10 साल बड़ा था।

माता पिता की दुलारी सरोज ससुराल में सूरज निकलने से पहले घर की अन्य महिलाओं के साथ बहार खेतों में शौच के लिए जाती , फिर नहा धो कर घर के कामों में लींन हो जाती और देर रात सब के सो जाने के बाद धक् हार कर जब सोने लगती तो रामदीन को अपना इंतज़ार करते पाती। यह उसकी रोज़ मरा ज़िन्दगी का चक्र बन गया। समय अपना पंख लगा कर उड़ने लगा और वो जब 22 की हुई तो पुत्र की चाह में वह 6 बेटियों की माँ बन गयी। कई वर्ष बीत गए , देश में उद्योगकीकरन की लहर से देश में तरक्की और विकास की लहर चलने लगी , पर उनके गांव वही पिछड़ा हुआ और लोग अंधविश्वास और गरीबी में जीते रहे। फिर एक दिन जब सरोज 30 वर्ष की हुई तो उसने एक पुत्र को जन्म दिया , उसका नाम अर्जुन रखा। उन दिनों पंजाब और हरयाणा में तेज़ी से उद्योग लग रहे था । रामदीन और सरोज भी अपने सात बच्चो को लेकर पंजाब के उद्योकिक शहर लुधिअना में आ कर रहने लगे।

वक़्त बीत रहा था। उनहोंने मेहनत से अपना 2 कमरे का घर बनाया , 6 में से 5 लड़कियों की शादी कर दी। सबसे से छोटी बेटी ने 5 वी के बाद अपनी एक सामाजिक संस्थान की मदत से सिलाई का काम करती है। बेटा 8 वी कक्षा में है। सरोज कहती हैं की बेटे को कम से कम 12 वी तक तो पढ़ाएगी। सब से छोटी बेटी की शादी की बात चल रही है , लड़का एक मोटर साइकिल की मांग कर रहा है।

सरोज की कहानी भारत के एक आम ग्रामीण की कहानी है जो दिन रात मेहनत कर अपना गुज़ारा करते है।

आज टेलीविज़न पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कार्यक्रम हम देख रहे थे। पास बैठी सरोज ध्यान से यह सब देख रही थी । सरोज पूछती है, ” बीबी जी , यह क्या कह रहे रहे है , आज महिला दिवस है ? मतलब ? ”

श्रीमती जी सरोज को महिलाओं के हक़ , शिक्षा , सेहत , सुरक्षा और पुरषों सामान बराबरी के विषय के सम्बन्ध में सरकार की तरफ से शुरू की गयी कई स्कीम और पहल के बारे में बताती है।

मैं सब सुन रहा हूँ और सोच रहा हूँ की कही यह सब स्कीम कागज़ पर तो नहीं रह जायेगी ? क्या वाकिये महिलाओं को पुरषो के सामान बराबर वेतन , इज़्ज़त और शिक्षा के अफसर मिलेंगे ? क्या सरोज जैसे गरीब अंधविश्वास , गरीबी और अनपढ़ता की ज़ंज़ीरे तोड़ कर आज़ाद नारी की तरह रह पाएंगे ? क्या उनको सरकारी स्कीम का लाभ कभी मिल पायेगा ?

सोशल मीडिया, समाचार पत्रों तथा टीवी पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कई तरह के मैसेज, नेताओं , अभिनेताओं तथा जानी मानी सामाजिक सख्शियत द्वारा सन्देश और विभिन्न कार्यक्रम, आयोजन, रैली , सेहत कैंप तथा सरकारी घोषणाओं में महिलाओं के हक़ , सुरक्षा , सेहत, शिक्षा , आर्थिक निर्भरता तथा पुरषों के समान सामाजिक बराबरी की बड़ी बड़ी बातें हर वर्ष 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कही जाती है। राजनीतक दल, सामाजिक संस्थान और यहाँ तक की सरकार भी महिलाओं के उथान के लिए वाह वाह लूटने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती। सरकारी आंकड़े पेश किये जाते है , हर क्षेत्र में नारी की उपलब्धि के गुन गान गए जाते है , हर शख्स के लबो पर एक ही बात होती है – कैसे नारी ममता और त्याग की मूर्ती है और कैसे वो परिवार को जोड़ कर रखती हैं। ऐसी बहुत सी बातें कही भी जाती हैं और भविष्य में भी जब जब मौका मिलता रहेगा ऐसी ही बातें होगी।

महिलाओं पर जब किसी भी तरह का अन्याय होता है तो वही सोशल मीडिया , समाचार पत्र तथा टीवी पर हाई तोबा मचाई जाती है , नेता और समाजिक संगठन आगे बढ़कर सरकार पर दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग करती है। कभी कभी दोषी पकडे भी जाते हैं , उन्हें सज़ा भी मिलती हैं पर अधिकांश हत्याचार की वारदातों के दोषी न पकडे जाते हैं या कानूनी कार्रवाई में देरी के कारण सालो साल लटकते रहते हैं।

पर यह कैसी विड़बना हैं ? देवी माँ की तरह पूजे जाने वाली नारी , ममता और त्याग की मूर्ती औरत को अपने अस्तित्व और इज़्ज़त को बचने के लिए हर युग में परीक्षा देनी पड़ती हैं, हर ज़ुल्म को कभी बच्चों की खातिर तो कभी परिवार की इज़्ज़त के लिए तो कभी कोई और विकल्प न होने के कारण चुप चाप सेहती हैं।

पर 21 वी सदी की नारी अब अबोध नहीं, मूक दर्शक नहीं। अपने हक़ के लिए वह गुमनामी के अँधेरे से निकलकर संगर्ष और होंसले से ज़ुल्म, अनन्य और भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं। इसके फलस्वरूप सरकार तथा मानयोग उच्च न्यायालय ने महिलाओं के हक़ में एहम फैसले भी दिए हैं। वोह पुरुषों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकार चला कर चल रही हैं, सफलता के नए शिखर छु रही हैं। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिसमे औरतें पुरषों से पीछे हैं।

महिला दिवस के दिन हम उन समस्त महिलाओं को आदर के साथ नमन करते हैं जो हमारे जीवन को अपने प्यार, शक्ति और बलिदान से सुनेहरा और खुशाल बनाती हैं।

सरोज जैसी महिलाएं भी पुरषों जैसे ही रोज़गारऔर शिक्षा के अफसर पा सकेगी। उनको पुरषों सामान परिवार और समाज में हक़ और बराबरी मिलेगी। ऐसे हमारा विश्वास है।

डॉ. अश्वनी कुमार मल्होत्रा

मेरी आयु 66 वर्ष है । मैंने 1980 में रांची यूनीवर्सिटी से एमबीबीएस किया। एक साल की नौकरी के बाद मैंने कुछ निजी अस्पतालों में इमरजेंसी मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम किया। 1983 में मैंने पंजाब सिविल मेडिकल सर्विसेज में बतौर मेडिकल ऑफिसर ज्वाइन किया और 2012 में सीनियर मेडिकल ऑफिसर के पद से रिटायर हुआ। रिटायरमेंट के बाद मैनें लुधियाना के ओसवाल अस्पताल में और बाद में एक वृद्धाश्रम में काम किया। मैं विभिन्न प्रकाशनों के लिए अंग्रेजी और हिंदी में लेख लिख रहा हूं, जैसे द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदुस्तान टाइम्स, डेली पोस्ट, टाइम्स ऑफ इंडिया, वॉवन'स एरा ,अलाइव और दैनिक जागरण। मेरे अन्य शौक हैं पढ़ना, संगीत, पर्यटन और डाक टिकट तथा सिक्के और नोटों का संग्रह । अब मैं एक सेवानिवृत्त जीवन जी रहा हूं और लुधियाना में अपनी पत्नी के साथ रह रहा हूं। हमारी दो बेटियों की शादी हो चुकी है।