गीत/नवगीत

कह रही लकडी़

अधजली चिता से ,चीख कर, कह रही लकडी़
जलती देह संग ,राख हो ,बह रही लकड़ी

पानी भर अंजुल ,कभी ना , मुझे दिया तुमने
फल और छांव ले ,परशु ही , मुझे दिया तुमने
अब संग जलाते ,खीझ कर ,कह रही लकडी़…

हमें न पनपातें ,काटते,  ये बडे़ लोभी
निज लाभ साधतें  ,छांटते ,ये बडे़ लोभी
पर सुख मिट गए ,आज सिर ,गह रही लकड़ी…

हमको जलने में, तनिक ना, क्लेश दुख होता
बन समिधा होते ,यज्ञ भस्म, वेश सुख होता
सजाते भाल पर ,तिलक कर,वह यहीं लकड़ी….

हो चिता की राख ,अर्थ हीन, जीवन न जीना
बाग शोभित करें ,पथिक का ,पोंछें  पसीना
धन्य वहीं जीवन, चिटक कर ,कह रही लकडी़…।

— सुनीता द्विवेदी

सुनीता द्विवेदी

होम मेकर हूं हिन्दी व आंग्ल विषय में परास्नातक हूं बी.एड हूं कविताएं लिखने का शौक है रहस्यवादी काव्य में दिलचस्पी है मुझे किताबें पढ़ना और घूमने का शौक है पिता का नाम : सुरेश कुमार शुक्ला जिला : कानपुर प्रदेश : उत्तर प्रदेश