धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सृष्टि के रोम रोम में शिव

भगवान शिव सनातन धर्म के सर्वशक्तिमान देवों में से एक हैं। शिव ऐसे अद्भुत देव हैं जो सभी को प्रिय हैं। न तो उन्होंने स्वर्णाभूषण और सुनहरे परिधान पहने हैं, न ही उन्हें विलासितापूर्ण जीवन प्रिय है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि भगवान शिव को संहारक भी कहा गया है। क्या यह विचित्र नहीं है कि वे संहारकर्ता हैं लेकिन सदा ध्यान मुद्रा में लीन रहते हैं? शिव आदि योगी हैं, प्रथम गुरु हैं और प्रथम योगी हैं। बहुत कम अवसर होते हैं, जब शिव क्रोध करते हैं, परन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो वे विनाश कर देते हैं।
भगवान शिव अज्ञान, कामनाओं, मृत्यु, पीड़ा, अहंकार, वासना, मोह-माया और क्रोध का नाश करते हैं। इसलिए भक्त भगवान शिव की शरण में जाते हैं, जो सदा शांत एवं सच्चिदानंद स्वरूप हैं। भगवान शिव को त्रिमूर्ति का महत्त्वपूर्ण देव माना गया है। दो अन्य देव ब्रह्मा एवं विष्णु हैं।
ब्रह्मा इस भौतिक जगत के सृजनकर्ता हैं और ब्रह्मांड के वैज्ञानिक नियमों के जनक हैं। विष्णु संसार के पालनकर्ता हैं। ब्रह्मा द्वारा रचित इस संसार को नष्ट करना उनके लिए असंभव था क्योंकि यह ब्रह्मा के बताए गए सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल होता। इसीलिए ब्रह्मा व विष्णु दोनों अपने-अपने कत्र्तव्यों सृष्टि के सृजन और पालन के लिए प्रतिबद्ध थे। दूसरी ओर महेश यानी शिव सृष्टि के सभी नियमों से परे हैं। विश्व के सभी बंधनों से मुक्त वे परम वैरागी हैं। इसलिए संहार करने की शक्ति शिव में निहित है। ब्रह्मांड में एकमात्र शिव हैं जो द्रव्य को ऊर्जा में बदल सकते हैं।
ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि उस समय स्थायी नहीं थी। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु ने शिव से आग्रह किया कि वे इस चराचर जगत को स्थायित्व प्रदान करें और शिव ने उनकी विनती स्वीकार ली। जगत को स्थिरता प्रदान करने के लिए भगवान शिव ने द्वैत रूप धारण किया। यह है शिवऔर शक्ति(भगवान शिव की द्विध्रुवीय प्रकृति)। यह भगवान शिव की तरंग-कण द्वैत प्रकृति है, जो भौतिक यथार्थ में विद्यमान है। इस रूप में शिव एक कण हैं और देवी शक्ति एक तरंग। दोनों इस जगत की स्थिरता बनाए रखने के लिए एक-दूसरे को पकड़े हुए हैं। शिव, शक्ति से कभी अलग नहीं हैं। भगवान शिव के इस स्वरूप के कारण ही जीवन सृष्टि का अनिवार्य अंग है।
एक ओर जहां भगवान शिव की पूजा सबसे आसान हैं, वहीं वे देवाधिदेव महादेव भी हैं। जितने सरल शिव हैं, उतना ही विकट उनका स्वरूप है, जिसका कोई मेल ही नहीं है। गले में सर्प, कानों में बिच्छू के कुंडल, तन पर बाघंबर, सिर पर त्रिनेत्र, हाथों में डमरू, त्रिशूल और वाहन नंदी। भगवान शिव के इस अद्भुत स्वरूप से हमें कई बातें सीखने को मिलती हैं।
कुल मिलाकर यह कहें कि यदि आपको जीने की कला सीखनी हो तो आप भगवान शिव के दर्शन को अपने जीवन में उतार सकते हैं। शिव, बुराई और अज्ञानता के साथ ही अहंकार को नष्ट करने की सीख देते हैं। उनके पवित्र शरीर पर स्थित हर पवित्र चिह्न जीवन जीने की शैली के लिए कुछ न कुछ सीख देता है।
शिव योग को स्वयं भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त है कि जो तुम्हारे उपस्थित रहने पर कोई भी धर्म-कर्म मांगलिक अनुष्ठान आदि कार्य करेगा वह संकल्पित कार्य कभी भी बाधित नहीं होगा उसका कार्य का सुपरिणाम कभी निष्फल नहीं रहेगा इसीलिए इस योग के किए गए शुभकर्मों का फल अक्षुण रहता है। सिद्ध योग में भी सभी आरम्भ करके कार्यसिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इन योगों के विद्यमान रहने पर रुद्राभिषेक करना, शिव नाम कीर्तन करना, शिवपुराण का पाठ करना अथवा शिव कथा सुनना, दान पुण्य करना तथा ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करना अतिशुभ माना गया है।
हजारों सालों से विज्ञान शिव के अस्तित्व को समझने का प्रयास कर रहा है। जब भौतिकता का मोह खत्म हो जाए और ऐसी स्थिति आए कि ज्ञानेंद्रियां भी बेकाम हो जाएं, उस स्थिति में शून्य आकार लेता है और जब शून्य भी अस्तित्वहीन हो जाए तो वहां शिव का प्राकट्य होता है। शिव यानी शून्य से परे। ज्योतिषाचार्य अनीष व्यास ने बताया कि कोई व्यक्ति भौतिक जीवन को त्याग कर सच्चे मन से मनन करे तो शिव की प्राप्ति होती है। उन्हीं एकाकार और अलौकिक शिव के महारूप को उल्लास से मनाने का त्योहार है महाशिवरात्रि।
— प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार लखनऊ (उत्तर प्रदेश) व्हाट्सएप - 8564873029 मेल :- prafulsingh90@gmail.com