लघुकथा

मित्रता

अभी अभी मेरी बहन मंजूरी ने मुझे फोन कर पूछा
मंजूरी-भैया ! वो मुझे कृष्ण सुदामा की मित्रता पर कुछ लिखना है।
मैं-तो लिखो न,रोका किसने?
मंजूरी-मैं कहाँ कह रही हूँ कि मुझे. किसी ने रोका।
मैं-फिर क्या बात है बोल न।
मंजूरी-बस आप थोड़ा समझा दो तो मैं आसानी से लिख सकूँगी।
मैं-चल कोई बात नहीं, मैं बताता हूँ।
मंजूरी-जी भैयाजी।
मैं-कृष्ण सुदामा की दोस्ती सिर्फ़ दोस्ती नहीं एक पराकाष्ठा है,जिसकी मिसाल हमेशा जीवंत थी,है और रहेगा।
मंजूरी-ऐसा क्यों?
मैं-वो इसलिए कि जात पांत से दूर,ऊँच नीच,पद प्रतिष्ठा में जमीन आसमान का अंतर होने के बाद भी दोनों मित्रों में बड़ा लगाव था,बावजूद इसके कहाँ एक राजा और कहाँ एक गरीब ब्राह्मण।लेकिन दोनों अपने दायरे से बाहर भी रहे और नहीं भी।कृष्ण जी ने उनकी भक्ति को सराहा ही नहीं अटूट विश्वास भी दिखाया, उन्हें. सुदामा की भक्ति पर अकाट्य विश्वास था।वहीं मित्रता के वशीकरण में फँसने के बजाय सुदामा जी को अपनी भक्ति का दोस्ती के नाम पर अनुचित लाभ कभी उठाने की कोशिश भी नहीं की।
मंजूरी-मगर भैया, क्या ये सच है?
मैं-देख तू ऐसे समझ।तू मेरी कौन है?
मंजूरी-ये कैसा प्रश्न है भैया?
मैं-तेरे प्रश्न का उत्तर इसी में है।
मंजूरी-वो कैसे?
मैं-देख तूझे समझाता हूँ।तू मेरी बहन है।जबकि हमनें एक दूसरे को देखा तक नहीं।फिर भी हम दोनों ने कभी भाई बहन की कमी महसूस नहीं की।या हमनें एक दूसरे के अधिकारों का दुरुपयोग किया।तूने छोटी बहन का हर फर्ज निभाने की कोशिश की मुझे भाई कहा ही नहीं, हर तरह से अपना अधिकार भी समझा।बहन के हर नाज नखरे दिखाए।मैंनें भी बड़े भाई का तुम्हारे फर्ज निभाने का हृ संभव प्रयास किया।मम्मी पापा ने मुझे कभी अनाथ होने का अहसास नहीं होने दिया ।
मंजूरी-बस भैया अब रहने दो।मैं समझ गई। मैं जानती हूँ आप रो रहे हैं,फिर भी अपनी बहन से छुपाने की कोशिश. कर रहे हैं।
मैं-ऐसा नहीं है बेटा।
मंजूरी-मैं जानती हूँ कैसा है?बहन हूँ, तो भाई को समझती हूँ । मेरा भैया कैसा है मुझसे बेहतर तो आप भी खुद को नहीं जानते।
मैं-ठीक है दादी अम्मा।
मैंने स्वतः ही सिर झुका लिया।मुझे पता है कि उसका प्रवचन शुरु हुआ तो बंद ही नहीं होगा।
मंजूरी-अच्छा भैया अपना ध्यान रखना ,और हाँ रोना बिल्कुल भी नहीं ।मेरा भाई कमजोर नहीं है।
मैं-सही है।
मंजूरी-एक बात और ,हम अगले सप्ताह आपके पास आ रहे हैं मम्मी पापा के साथ।मम्मी आपके लिए परेशान हैं।
मैं-मगर अचानक!
मंजूरी-अगर मगर छोड़ो और हमारे लिए जरा ढ़ंग के गिफ्ट का इंतजाम रखना।
मैं-मुझे पता है।नहीं तो तू खाने के बजाय मेरा दिमाग चट कर जायेगी।
मंजूरी-वो तो है।अच्छा भैया, अब रखती हूँ।अपना ख्याल रखना ।नमस्ते भैया।
मैंने ढेर सारा आशीर्वाद देकर फोन रख दिया।

*सुधीर श्रीवास्तव

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