लघुकथा

होली खेलो ना

गोपाल के मन में बृज की होली देखने की इच्छा हुई । वह व्यग्र और विह्वल से धरा की ओर दौड़ पड़े । यमुना किनारे कोई बंसी बजा रहा था । गोपाल अपनी बाँसुरी ढूँढ़ने लगे । तुरंत ही अपनी भूल का अहसास हुआ , मैंने तो अपनी बाँसुरी राधा को दे दी थी । इसी वज़ह से रूक्मिणी सत्यभामा सभी मेरे साथ होकर भी मेरी उपेक्षा करती हैं ।
गोपाल व्यग्र होकर आगे बढ गये । ओह यह कैसा संगीत है ? खुशी की जगह आँसू बारम्बार आ रहे हैं ।
मातमी धुन ! हाँ इसी से घबराकर तो मैं और मेरी द्वारिका जलसमाधि में विलीन हो गई थी । नज़रें ऊपर की ओर उठ गईं, मानों वह किसी से पूछ रहे हों– “यह कैसी लीला गोसाईं ?”
जवाब भी मानों मिल ही गया- “सब नाच नचावत राम गोंसाईं, नाचत नर मरकट की नांईं”
गोपाल खुशियां ढूँढ़ने आये और मातमी धुन से व्यथित हो,आँखें बंद कर लेट गये । लेकिन बसंत उनकी उदासी को पल भर में तिरोहित कर दिया
अहा ! होली ! मालपूए एवं गुझिये की खुशबू के संग आम्रमंजरी की खुशबू से फिंज़ाओं में एक अज़ीब सी मदहोशी फैली है । पैर नर्तन की मुद्रा में बरबस थिड़कने लगे ।
गोपाल बेध्यानी में होली गाने लगे…”आजू बिरज में होरी रेएएए…रसिया, होरी रेएएए रसिया बल जोरी रेएए रसिया ।”
नाचते-नाचते उन्हें भूख का अहसास एक लंम्बे अरसे बाद हुआ !
भोजन की खोज में भटकते हुए ऐसे घर में जा पहुंचे जहां परम शांति व्याप्त थी । एक रोती बिलखती औरत द्वार पर मसले हुए फूलों को चुन रही थीं ।
” मत रो मुरारी की माँ, अपना कन्हैया वीरगति को प्राप्त हुआ है, यह पुष्प मुझे दो, यमुना में प्रवाहित कर आता हूँ ।”
“नहीं जी ! यह पुष्प ही तो मेरी बहू का और मेरे जीने का सहारा है । मैं अपने बाग में इसी के बीज को पुनः रोपित करूँगी ।”
गोपाल दौड़ कर उस बुढ़ी माँ से लिपटते हुए बोले- “माई मुधे भूथ लगी है, मुधे मालपूए थिलाओ ना…होली खेलो ना ।”
यशोदा चिंहुक कर विह्वल होकर भूखे बच्चे को ढूँढ़ने लगी, लेकिन आसपास कोई नहीं दिखाई दिया। उसे अचानक बहू का ख्याल आया ।
माँ होकर कैसे मैं भूल गई कि मेरी बहू यानी होने वाली माँ भूखी है। वह जल्दी से रसोईघर में जाकर थाली सजाकर बहू के कमरे में पहुंची ।
कमरे में बहू एक बच्चे के संग होली खेल रही थी। अरे ! यह बच्चा कौन है ? कुछ पूछती उससे पहले ही कानों में बच्चे की आवाज सुनाई दी
“मेले छाथ होली थेलो ना मइया ।”
बहू के माथे पर सिन्दूरी गुलाल देख मन आनंद से भर उठा,खाने की थाली वहीं रख गोपाल को गोद में लेकर नाचने लगी ।
” मेरा मुरारी आ गया, मेरा बांकेबिहारी आ गया ।”
“बहू आज होली है, होली खेलो ना । देख यह नन्हां सा गोपाल शायद यही समझाने ना जाने कहां से हमारे घर आने वाले खुशियों का स्वागत संदेश लेकर आया है।”
— आरती रॉय

*आरती राय

शैक्षणिक योग्यता--गृहणी जन्मतिथि - 11दिसंबर लेखन की विधाएँ - लघुकथा, कहानियाँ ,कवितायें प्रकाशित पुस्तकें - लघुत्तम महत्तम...लघुकथा संकलन . प्रकाशित दर्पण कथा संग्रह पुरस्कार/सम्मान - आकाशवाणी दरभंगा से कहानी का प्रसारण डाक का सम्पूर्ण पता - आरती राय कृष्णा पूरी .बरहेता रोड . लहेरियासराय जेल के पास जिला ...दरभंगा बिहार . Mo-9430350863 . ईमेल - arti.roy1112@gmail.com