कविता

ज़माना बदला पर सोच नहीं बदली

हमारा समाज आज भी पुरुष प्रधान है
हेकड़ी दिखाना अब भी मर्दों की शान
काबलियत से आगे बढ़ती है जब औरत
मर्द की खुदद्दारी को करती बहुत परेशान है
औरत के कपड़े पहनने में भी परेशानी है
आगे कैसे बढ गई होती सब को हैरानी है
कहीं दहेज के लोभ में जलाई जाती है
कहीं कोख में मिट जाती निशानी है
आज भी हो रहा नारी पर अत्याचार
पैदा होने से पहले मार दी जाती है
तन के भूखे भेड़िये बैठे हैं नज़र गड़ाए
मां बहन और बेटी नज़र क्यों नहीं आती है
अभी भी बेटी का आना समझते हैं बोझ
ज़माना बदला पर बदली नहीं है सोच
क्यों बेटे और बेटी में समझते हैं फर्क
रसातल में जा रही हमारी संस्कृति और संस्कार
अपने लहू को ही अपना नहीं समझते हैं
कैसे आगे बढ़ पाएंगे कैसे होगा हमारा उद्धार
— रवीन्द्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र