सामाजिक

चिन्ता : एक अंतर्मुखी बहिर्मुखी वेदना

चिन्ता अंतर्मुखी बहिर्मुखी वेदना है। संसार में चिन्ता दो तरह की पाई जाती है। एक अंतर्मुखी तथा दूसरी बहिर्मुखी। अंतर्मुखी चिन्ता में मानवता का निजी चिन्तन तथा बहिर्मुखी में प्राकृतिक प्रकोप आता है। भूमंडलीकरण, नवउदारवाद, अर्थनीति की सक्रिय अवधरणायों ने मनुष्य की चिन्ताओं में बहुत बढ़ौतरी की है। आवश्यकताओं ने मनुष्य की भौगोलिक, भौतिक, व लोकिक स्थिति में काफी बदलाव किया है।
संचार, प्राचार, प्रासार, यातायात, जनसंख्या आदि की तीव्र गति के साथ बढने से प्राकृतिक प्रकोप तथा हादसों की संख्या बढती चली जा रही है। बाढ़, भूचाल ;भूकंपद्ध, हादसे, घटनाएं, बीमारी, सूखा आदि स्थितियां मनुष्य के लिए हमेशा ही चिन्ता का विषय रही हैं। यह चिन्ताएं मनुष्य की बर्बादी तो करती ही हैं परन्तु वर्तमान को कुचलती हुई, भविष्य का बहुत नुक्सान करती हैं तथा भविष्य को फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए बहुत समय लग जाता है। आर्थिक हानि के साथ-साथ मानव क्षति भी बहुत ज्यादा होती है। इस प्रकार का प्राकृतिक प्रकोप आयु ”ास भी करता है। वर्तमान को उठने के लिए काफी समय लगता है। भविष्य की विक्लांगता को स्वस्थ होने के लिए बहुत समय लगता है।
प्राकृतिक प्रकोेप तो प्रकृति के नियंत्राण में ही रहता है। प्रकृति कब, क्या करे? किसी को भी नहीं मालूम होता। तरक्की पसंद मनुष्य तो इस का सामना ही कर सकते हैं। यह चिन्ता मनुष्य की स्वयं पैदा नहीं की होती। विकसित देशों ने बेशक प्राकृतिक प्रकोप की चिन्ताओं के अनेक समाधन ढूंढ लिए हैं परन्तु इसकी भविष्यवाणी आसम्भव है। ऐसी समग्र चिन्ताएं अत्यध्कि वेदना प्रद तथा समस्त जन-समूह के लिए समान होती हैं।
अपने व्यवहार से उत्पन्न चिन्ताओं में अहंकार, बेईमानी, झूठ, ग़ैर कानूनी कार्य, अनैतिक कार्य, नशा, चोरी-डकैती, अनुशासन-हीनता, शोहरत, अमीरी-गरीबी, असमानता, ऊंच-नीच, अंध्विश्वास, क्लेश, ना मानने की भावना, आयु का अंतर, हीनता, अध्किारों तथा फर्ज़ों का अनुचित प्रयोग आदि कारण आ जाते हैं। स्वै- इन चिन्ताओं से अभिप्राय है मनुष्य द्वारा स्वयं पैदा की गईं चिन्ताएं।
चिन्ताएं मनुष्य को खोखला कर देती हैं। चिन्ता एक एैसा दीमक है जो मनुष्य को अपने भीतर ही खाता रहता है। चिन्ताएं दिमाग पर गहरा प्रभाव डालती हैं। मनुष्य में इतनी ज्यादा गर्मी होती है कि उसकी गर्मी से बिजली का एक बल्ब जग सकता है। चिन्ताओं का मूल प्रभाव दिमाग से होता हुआ फिर हृदय से होता हुआ सारे शरीर पर पड़ता है। शरीर का नियंत्राण दिमाग के पास ही है। दिमाग शरीर को आग भी लगा सकता है और बर्फ की भांति ठंडा भी कर सकता है। चिन्ता की अग्नि से दिमाग गर्मी पकड़ता है। देखा जाए तो मनुष्य के शरीर में वह सब कुछ है जो बाहर है भाव कि शरीर में वे सब कुछ है जो ब्रहमण्ड है वही पिण्ड में भी है।
मनुष्य जब चिन्ता करता है तो उसके दिमाग पर गहरा असर होता है जैसे कि किसी की संतान अच्छी नहीं, घर का क्लेश, बेईमानी का असर, अदालती झगड़ा, कोई भी भंयकर बीमारी आदि की चिन्ता मनुष्य के तन-मन-दिमाग पर गहरा असर छोड़ती है। आजकल तो हृदय की गति का रूकना ;हार्ट अटैकद्ध, बढ़ता-घटता रक्त चाप, शूगर, आदि का लगातार बढ़ना भी चिन्ता का कोई न कोई कारण तो निजी कारण ही होता है। कोई भी वस्तु असम्थर्य हो जाए या हद् से बढ़ जाए तो चिन्ता का कारण बन जाती है। अभीष्ट वस्तुओं का, चिन्ता का मुख्य कारण माना जाता है। इन सब चिन्ताओं का दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। दिमाग की अग्नि से संचालित ध्मनियों, शिराएं ;नाड़ियांद्ध भी पिघल सकती हैं या फट सकती हैं। बीमारियों के बढ़ने से भी दिमाग में गर्मी बढ़ जाती है जिस से रक्त का संचार सही नहीं रहता। इन बीमारियां के कारण चिन्ता मनुष्य को चिता तक ले जाती है।
चिन्ता मनुष्य का घर है। चिन्ता एक एैसी लिखावट है जो मनुष्य की कार्य शैली के पन्नों के ऊपर इतिहास लिखती है। यह इतिहास मनुष्य की चिता तक चलता रहता है। मनुष्य की चिता के साथ ही चिन्ता भी खत्म हो जाती है।
चिन्ता को पूजने वाली ही सुखद जीवन पाते हैं। चिन्ता को अभिवादन, अभिनंदन से, सरल सहज, ध्ैर्य से अपनाते जाएं, उसके निष्कर्ष ढूढ़ते जाएंतो आप सुखद आनंदमयी अवस्था की ओर बढ़ते चले जाएंगे। चिन्ता के पुजारी लोग ही उपलब्ध्यिों को चूमते हैं।
एक श्लोक हैः चिन्ता चितयो र्महये चिन्तैम गरीयसी। चिता दहति निर्जीवम चिन्ता सजीषं ध्हेत्रा। भाव कि चिन्ता और चिता में से चिन्ता अध्कि बलवती होती है क्योंकि चिता तो निर्जीव ;शवद्ध को जलाती है जबकि चिन्ता जीवित को ही जलाती रहती है।
कर्मान्द्रियों वज्ञानोन्द्रियों के अनुशासन से चिन्ता बलहीन होती है। सुखद चिन्ता तरक्की का दूसरा नाम है। सुखद चिन्ता परमातमा की ओर जाता रास्ता है।
दुखद चिन्ता मृत्यु का द्वितीय नाम। चिन्ता बीमारियों का घर, चिन्ता भय का दैत्य, चिन्ता आंसूयों का नाम, चिन्ता ग़म की सीढ़ी, चिन्ता सोच की किरचियां, चिन्ता जवानी में बुढ़ापे का अहसास, चिन्ता नरक के दरवाजे खोलती है, चिन्ता दुख के हस्ताक्षर।
मानव तो चलता फिरता यंत्रा है इसके इर्द-गिर्द तो अनेकानेक वस्तुएं चल रही हैं। किसी भी मनुष्य का कोई पता नहीं कब किसी हादसे का शिकार हो जाए और चिन्ता में ग्रस्त हो जाए।
फिर भी मनुष्य अपनी आदतों में अनुशासन, सच, प्यार-सतकार भर ले तो उसकी आध्ी चिन्ताएं खत्म हो जाती हैं। अहंकार, भागदौड़, सोच से, ध्ैर्य से प्रत्येक कार्य करें तो चिन्ता कम होती है। मनुष्य चिन्ताएं स्वयं मोल लेता है। यह उसका प्राचीन स्वभाव है। फिर भी समझदार व्यक्ति चिन्ता के घेरे से बचने के लिए कोशिश करते हैं तां जो उनकी ज़िंदगी अच्छे सकारात्मिक ढंग से व्यतीत हो सके। मानव प्रकृति की सब से अद्भुत तथा बहुक़ीमती दात है।
चिन्ता दूर करने के लिए मनुष्य को अच्छे सहृदय मित्रा, अच्छा वातावरण, सच्चाई, योग, अध्यात्मिकता, बाणी, परमात्मा का भजन, दान-पुण्य, अच्छी पुस्तकें, अच्छे टी.वी. ;दूरदर्शनद्ध कार्यक्रम, अच्छी अख़बारें, मैग़ज़ीन, पर्यटन, अनुशासन, अच्छे कर्म, और अच्छी संगत का आसरा लेना चाहिए।
मनुष्य का असली ध्र्म तो सच्चाई तथा खुशी ही है। परमात्मा का स्वरूप है मनुष्य। इस में ही परमात्मा का अस्तित्त्व छिपा हुआ है। परमात्मा के अस्तित्त्व के बगैर मनुष्य अध्ूरा है।
सब से मुश्किल है एक अच्छे मां-बाप ;अभिभावकद्ध होना, और उस से भी मुश्किल है एक अच्छा बेटा, बेटी का होना। फिर कटुम्ब चलता है।
चिन्ता को दूर करने के लिए मनोरंजन, नैतिक कार्य अपनाएं। कानून की उल्ंघना न की जाए, देश प्रति सहृदयता रखें, बेईमान, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोर न बनें, बेकर समय का सदोपयोग करें, दिखावटी प्रेम प्रदर्शन न करें, स्वयं को कार्य सि( बनाए रखें, प्यार सत्त्कार की भावना बांटें, बढ़ों का सत्त्कार, तथा छोटों से प्यार करें आदि कार्य अनवरित करते चले जाएं।
चिन्ता दूर करने के दो मुख्य स्त्रोत हैं नम्रता तथा शान्ति। यह दो स्तम्भ सारे जीवन का आधर हैं। समस्त सोच इस की नींव पर खड़ी है। नम्रता और शान्ति ही सुखद वातावरण उत्पन्न करती है। दूसरों को सुख देने वाले मनुष्य अमूमन सुखी रहते हैं तथा चिन्ता से मुक्त रहते हैं।
खुशी को ढूंढना पड़ता है। खुशी आप के दर पर स्वयं चल कर नहीं जाएगी। बाप, बेटा-बेटी, पुत्रा, पौत्रा, दोहता, प्रकृति आदि से आप खुशी जब चाहें ढूंढ सकते हैं। इसी का नाम तो स्वर्ग है। छोटी छोटी बातों में खुशी छिपी है लेकिन आपको ढूंढने की ज़रूरत है।
जिसके पास सच तथा नम्रता का गहना ;अलंकारद्ध है समझें उसके दर पर खुशी बंदनवार संजोती है। नम्रता, शान्ति, ध्ैर्य, सच के सि(ांत पर ही खुशी की मंज़िल है जो चिन्ता दूर करती हैं। ज़िंदगी में भव्य शगूफे बिखेरती है।
दूसरो को परेशान करने वाले मनुष्य को कभी खुशी नहीं मिलती। वे हमेशा चिन्ताओं के कूएं में गिरे रहते हैं। प्रत्येक वस्तु में चिन्ता है, प्रत्येक वस्तु में खुशी है। आपको क्या ढंूढना है, ढूंढना आना चाहिए।
आओ चलें किसी खुशी के मन्दिर में यहां भगवान की पूजा-अर्चना हो रही हो। यहां अध्यात्मिकता का आशीवार्द-शुभकमानाएं हों और अच्छे जीवन के भव्य फूल खिलाएं। भगवान की अपार कृपा से ही जीवन निर्धरित है। एक शेयर हैः

कभी किसी को मुकमल जहां नहीं मिलता,

कहीं ज़मीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता।

— बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर

 

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409