कथा साहित्यलघुकथा

चंद साँसें



भरा-पूरा परिवार। पोता-पोती के साथ पूरे दिन धमाचौकड़ी मचाती दादी नीरा। सभी को मन से स्नेह देने वाली बीमारी की चपेट में आ जाती है। घर के एक कमरे में बंद, लाचार।
‘बहू ज़रा सुनो।’
बार-बार आवाज़ लगाती पर! आवाज़ दरवाजे से टकरा फिर वहीं ठहर जाती।
थोड़ी देर बाद एक आवाज उनके कानों में पड़ी…
‘मम्मी जी ख़ाना व दवाईयां बाहर रख दी हैं। मैं यहां से चली जाऊं तभी लीजिएगा।’ आवाज़ बंद!
किसी तरह उठना लकड़ी के सहारे से गेट तक पहुंच, खाना अंदर लेकर मेज़ पर रख। पूजा कर मुंह बिटार फिर चादर तान लंबी सांस खींच शांत हो जाना। यही रोज़ का रूटीन नीरा का रह गया था।
भगवान से अनगिनत पृश्न ही पृश्न ‘क्यों मैं? क्यों यह सब? क्यों नहीं मेरी बाकी जिंदगी एक जरूरतमंद को? मैं भारी सब पर? मेरा जीवन अब व्यर्थ, मैंने अगर अपनी जिंदगी में कुछ अच्छे कर्म किए हों तो उनका मूल्य आज़ हे भगवान मैं आपसे मांगती हूं।’
कह अपनी चंद सांसों को समेटती दूसरी दुनिया में विचरण करती। न जाने कब इस भार वाली जिंदगी से बाहर निकल अपने को खुश देखती आज़ खुली हवा में सांस ले रही थी!

मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक