कविता

स्त्री

मर्म है आंखों में,
एक राज छुपाए रखा है।
स्त्री ने अपने आँचल में,
संसार बसाए रखा है।
शिशु को पालने में,
ममता की मूरत बन जाती,
ओर मनचलों के लिए,
वही कहलाती छाती।
अंचल के तले छुपाकर,
जिस पुरूष को दूध पिलाती,
उसी पुरूष जाती के हाथों,
एक दिन है लुट जाती,
भर भर झोली अपनी,
ममता जिसपर बरसाती।
बिन कारण उसके,
लब्जों चरित्रहीन कहलाती।
हिरनी सी चंचल,
जब मन मे है समाती।
एक प्रेम की परछाई वो,
उसके लिए बन जाती।
सुंदर रूप और काया से,
जब भी है सुहाती।
लांछन और फवतियो से,
रोज डरायी जाती
काजल बिंदी लाली,
होंठों पर वो लगाती।
मनचाहा तो उनकी,
बन जाती है थाती।

— अनीता विश्वकर्मा

अनीता विश्वकर्मा

अध्यापिका, पीलीभीत-उत्तर प्रदेश, 7983333497