सामाजिक

किसी ने रोज़ा रखा किसी ने उपवास- कबूल उसका हुआ जिसने मां-बाप को रखा अपने पास

गोंदिया- वैश्विक रूप से भारत एक ऐसा अकेला देश है जहां धार्मिकता,आस्था,आध्यात्मिकता,श्रद्धा,संस्कृति, इत्यादि अनेक प्रकार के मानवीय गुण हैं जिसमें भारत सबसे आगे हैं,और होना भी चाहि, क्योंकि यह सभी माननीय गुण भारत की मिट्टी में समाए हैं,,जो भारत में जन्म लेते हैं यह ऊर्जा उनके मस्तिष्क ने समा जाती है साथियों..मेरा यह मानना है कि कुछ अपवाद को अगर हम छोड़ दें तो भारतीय नागरिक अपने माता-पिता का जितना सम्मान और एक सकारात्मक भाव,सेवा,श्रद्धा,सत्कार, सम्मान, जितना अपने हृदय में रखता है।उतना शायद विश्व में कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा परंतु हमें यह भी मानना पड़ेगा और यह कटुसत्य भी है कि वर्तमान समय में पाश्चात्य संस्कृति रूपी डायन हमारे सर्वज्ञ सभ्य भारत देश में भी अपना वर्चस्व बढ़ाते जा रही है जिसे रोकने, समाप्त करने,और इस मामले में महान भारत की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए,भारत के हर युवा का साथ,सहयोग और संकल्प जरूरी है।…साथियों बात अगर हम वर्तमान कुछ सालों की करें तो एक आध्यात्मिक का दौर बहुत चला है।जहां लोगों,का ध्यान बहुत आकर्षण हुआ है, और अपना घर परिवार मातापिता छोड़ या रोज़ा, उपवास,रख ध्यान में जाने की ओर कोशिश कर रहे हैं और अपने माता, पिता घर- परिवार,बच्चों की जवाबदारी से ध्यान भटका रहे हैं।…साथियों बात अगर हम माता-पिता की करें तो,दुनिया में सभसे बड़ा ईश्वर अल्लाह व गुरु का स्थान ऊपर है, मगर सबसे ऊपर है माता-पिता का स्थान। उसमें भी मां सर्वोपरि है। वेद ग्रंथों में उल्लिखित के अलावा तमाम उदाहरण हैं, जो मां को सबसे बड़ा बताते हैं।वेदोंमें कहा गया है कि पिता धर्म है,पिता स्वर्ग है तथा पिता ही तप है,आज भारतीय युवाओं के पास अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं है |जबकि भारतीय समाज में माता -पिता की सेवा को समस्त धर्मों का सार है |समस्त धर्मों में पुण्यतम् कर्म माता-पिता की सेवा ही है ,पाँच महायज्ञों में भी माता -पिता की सेवा को सबसे अधिक महत्व हैं।सबसे बड़ा धर्म-माता पिता की सेवा करना।भारत वर्ष में एक से बढ़कर एक जीवात्मा पैदा हुए है ,भारत की मिटटी में जन्म लेना ही इश्वर की बहुत बड़ी कृपा है ,लेकिन इस धराधाम में जिसने जन्म लेकर भी मातापिता बुजुर्गों की सेवा कर,कुछ पुण्य नहीं कमाया उसका जीवन पशु के सामान है ,भारत की मिटटी में जन्म लेने के लिए देवता भी कितने जप तप करते है।माता पिता का स्थान सर्वोपरि हैं….साथियों बात अगर हम व्रत या उपवास या रोज़ा रखने की करें तो,,व्रत, रोज़ा,उपवास का आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी है इसका मूल उद्देश्य वैज्ञानिक रूप से शरीर को स्वस्थ्य रखना होता है। आध्यात्मिक रूप से व्रत से मन और आत्मा को नियंत्रित किया जाता है।अलग अलग तिथियाँ और दिन अलग अलग तरह से मन और शरीर पर असर डालती हैं जिसको ध्यान में रखकर अलग अलग तिथियों और दिनों को उपवास या व्रत का विधान बनाया गया है। विशेष तिथियों या दिनों को व्रत-उपवास रखने से शरीर और मन तो शुद्ध होता ही है, मनचाही इच्छाएँ भी पूरी होती हैं।परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम माता-पिता, घर परिवार,का महत्व और जवाबदारी भूलकर यह सभ करे…साथियों बात अगर हम वर्तमान परिवेश की करें तो,उस समय के श्रवण कुमार से अच्छा तो फिलहाल कोई नही बता सकता।लेकिन आज के बदलते परिवेश मे श्रवण कुमार तो बमुश्किल मिलेंगे।आज समय के हिसाब से पुत्र मे भी काफी बदलाव आया है,अब पहले वाली बात नही रह गयी।एक बच्चे के लिये माता-पिता का रहना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है,जितना महत्व एक पौधे को पालने मे माली करता है उतनी ही जिम्मेदारी एक लड़के को पालने मे करनी पड़ती है।वह माली जो पौधेको लकड़ी का सहारा देकर पानी खाद आदि से सिंचित करके उस पौधे को वृक्ष बनाता है।उसी प्रकार से माता-पिता भी नन्हे से बच्चे को कितने कष्ट को झेलते हुए उस बच्चे को युवक बनाते है।माता-पिता के अथक प्रयास के बदौलत ही एक बच्चा अपने सफलतम मार्ग पर चलते हुए एक बड़ा इंसान बनता है।इसीलिये माता-पिता को बच्चों कीप्राथमिक विद्यालय कहते है क्योकि हर बच्चा पैदा होते ही स्कूल नही जाता,तो उस समय घर पर पहली सीख माँ और पिताजी ही देते है। पिता से भी ज्यादा मेहनत माँ को करना पड़ता है,उसका कारण ये है कि माता अपने पुत्र के 24 घण्टे साथ मे रहती है,उसके हर दुःख, दर्द मे खड़ी रहती है। हमारे जीवन मे पिता का भी महत्व कम नही होता क्योकि एक पिता अपने बच्चों को हमेशा ऊंचा उठते ही देखना चाहता है,और इस चक्कर मे वह अपनी इच्छा का भी बलिदान कर देता है। सब कुछ गवाँ कर भी बच्चे को ऊपर उठता देखना चाहता है।पिता को आप बांस की सीढ़ी भी कह सकते है जो अपना बलिदान करके भी दूसरो को ऊपर ले जाने के लिये हमेशा तैयार रहता है,इस प्रकार से पिता का सहयोग अतुल्य होता है।पिता धर्म है पिता स्वर्ग है तथा पिता ही तप है ,आज भारतीय युवाओं के पास अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं है जबकि भारतीय समाज में माता -पिता की सेवा को समस्त धर्मों का सार है।समस्त धर्मों में पुण्यतम् कर्म माता-पिता की सेवा ही है ,पाँच महायज्ञों में भी माता -पिता की सेवा को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है पिता के प्रसन्न हो जाने पर सभी देवता प्रसन्न हो जातेहैं,माता में सभी तीर्थ विद्यमान होते हैं।जो संतान अपने माता -पिता को प्रसन्न एवम संतुष्ट करता है उसे गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है।जो माता -पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा समस्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा हो जाती है।जो नित्य माता -पिता को प्रणाम करता है उसे अक्षय सुख प्राप्त होता है।जब तक माता-पिता की चरण रज पुत्र के मस्तक पर लगी रहती है तब तक वह शुद्ध एवम पवित्र रहता है।माता पिता का आशीर्वाद न हो तो हम जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकते है।इसलिए हमें माता-पिता की उपयोगिता को महत्व देना चाहिए और जीवन के हर चरण में उनका सम्मान करना चाहिए।जब हम बड़े हो जाते हैं तो ऐसा लगता है कि हम अब सब कुछ कर सकते हैं।परंतु तब भी हमको उनके दिशानिर्देशों का पालन,उनकी सलाह का मानना जरूरी है।क्योंकि यह हमारे जीवन के सरोवर रिश्ते में है अपने माता -पिता से प्यार करना चाहिए और उनका मान-सम्मान करना चाहिए।क्योंकि माता-पिता एक ऐसे हमारे एकमात्र विकल्प है जो हमको दिल और आत्मा से प्यार करते हैं।अतःउपरोक्त पूरे विवरण का अगर हम गहराई से, हृदय से, अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि कोई रोज़ा रखे या कोई कितने भी उपवास रखें बिना मां बाप की सेवा के वह ईश्वर या अल्लाह के पास कबूल नहीं होंगे।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वद्र्धन्ते आयुॢवद्या यशोवलम्।।

अर्थात-वृद्धजनों (माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजन) को सर्वदा अभिवादन प्रणाम तथा उनकी सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या,यश और बल ये चारों बढ़ते हैं

-संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र

*किशन भावनानी

कर विशेषज्ञ एड., गोंदिया