गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ख़ुद गुनाहों का मैं अपने फैसला हो जाऊंगा,
ठीक उस पल ही बदी से मैं जुदा हो जाऊंगा।

दर्द को शिद्दत से सहना आ गया जिस दिन मुझे,
दर्द की अपने मैं यारों ख़ुद दवा हो जाऊंगा।

ढूंढते रह जाएंगे मुझको सभी शहरों, शहर,
अपने घर में जब यहाँ मैं ग़ुमशुदा हो जाऊंगा।

आप रहिए मालो ज़र के संग मुझको ग़म नहीं,
साथ अपनी माँ के रहकर मैं बड़ा हो जाऊंगा।

आपके कहने से फ़ितरत क्यूंँ मेरी बदले भला,
हूंँ अगर पत्थर तो कैसे आईना हो जाऊंगा।

लोग कहते हैं ये, ‘जय’ भीतर तेरे भगवान है,
दिख गया वो जिस घड़ी मैं बावला हो जाऊंगा।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से