लघुकथा

कोरोना शर्मसार

शहर में कई दिनों के सख्त लॉकडाउन के बाद इसमें थोड़ी ढील दी गई। कुछ आवश्यक सेवाओं वाली दुकानों को सुबह सात बजे से शाम चार बजे तक खोलने की अनुमति दी गई थी।
रामलाल अपनी छोटी सी किराने की दुकान खोलकर बैठा था। कुछेक परिचित ग्राहकों के अलावा और कोई उसकी दुकान पर नहीं आया।
अचानक उसके मस्तिष्क में वह तस्वीर नाच उठी जब उसके बेटे ने ऑनलाइन एक मोबाइल खरीदा था और उसे दिखाते हुए कहा था, “पापा ! यह देखो, मेरा नया फोन। ऑनलाइन मँगाया इसलिए इसपर पूरे पाँच सौ रुपये की बचत हुई।” और उसने भी खुशी जाहिर करते हुए उसके निर्णय की सराहना की थी।
   चिंतित अवस्था में ऑनलाइन दुकानदारी को कोसता हुआ वह बार बार गल्ले में रखे कुछ नोटों को गिनता और फिर रख देता। लॉक डाउन के बहाने उसने एक फर्म का बिल बाकी रखा था और आज दुकान खोलने के बाद ईमानदारी दिखाते हुए उसे वह रकम उसके पास पहुँचाना जरूरी था।
ग्राहकों के अभाव में कुछ रकम अभी भी कम हो रही थी उसके पास। शाम के चार बज गए थे और उसे उम्मीद थी कि कोई एक भी तगड़ा ग्राहक आ गया तो उसकी जरूरत पूरी हो जाएगी और वह यह रकम उस फर्म को पहुँचाकर अपनी साख बचा लेगा।
इसी चक्कर में उसने बाहर स्थित दुकान का सारा सामान समेटकर सिर्फ दुकान का शटर उठा रखा था। लगभग पाँच बजे अचानक दुकान के सामने पुलिस की गाड़ी रुकते देखकर उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। जल्दी से उसने शटर गिरा भी दिया लेकिन गाड़ी से उतरते हुए सिपाही ने पहले ही अपने मोबाइल से उसके खुले दुकान की तस्वीर खींच ली थी। रामलाल से सिपाही ने कड़कते हुए पूछा, ” क्या तुम्हें पता नहीं कि शाम चार बजे से पहले दुकान बंद करना था ?”
” बंद कर तो चुका था साहब, बस शटर गिराना बाकी रह गया था। गलती हो गई साहब ,आगे से और जल्दी बंद कर दूँगा।” रामलाल ने परिस्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए अनुनय विनय की।
“तुम जैसों की वजह से ही देश में कोरोना का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। अभी लंबा चौड़ा जुर्माना ठोंकते हैं, तब तुम्हारी अक्ल ठिकाने आएगी।” सिपाही ने अपना पुलिसिया रंग दिखाया।
रामलाल ने काफी देर तक मिन्नत मनुहार करते हुए अंत में मुट्ठी में बंद करके एक पाँच सौ का नोट उस सिपाही की हथेली तक पहुँचा दिया। नोट अपनी जेब के हवाले करके सिपाही ने डंडा फटकारते हुए कहा, “ठीक है, अभी तो हम जा रहे हैं, लेकिन आगे ध्यान रखना।”
यह दृश्य देखकर उनकी तरफ बढ़ रहा कोरोना वायरस शर्म से सिर झुकाकर दूसरी तरफ मुड़ गया।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।