गीतिका/ग़ज़ल

चौराहेबाज़ी…

गांव चलो दोस्तों अमरुद अब हरे नहीं ।
शहरों की आपाधापी में खरे उतरे नहीं ।।
रोनाकाल कोरोनाकाल फिर भी डटे रहें ,
सुई चुभोकर फुस्स करदे वो गुब्बारे नहीं ।
पत्थरबाजों की तादाद बढ़ने लगे हैं फिर ,
कुरेदो मत  हमें यूं  जख़्म अभी भरे नहीं ।
मरना जानते हैं तो मारना भी जानते हैं ,
कांटे हैं  पंखुड़ियों की तरह बिखरे नहीं ।
इधर उधर की बातें खुलेआम मुलाकातें ,
कर बदतमीज दिल एक जगह ठहरे नहीं ।
मोहब्बत शोहरत दौलत चाहत उसके ,
नाम देखा आशिक ऐसे सिरफिरे नहीं ।
चालबाज  बेवफा  फरेबी  झूठे कहकर ,
उसने यूं ही मार डाला  वे खुद मरे नहीं ।
वहां  कत्ल भी हुआ  तो  कत्लेआम हुआ ,
चार यार खुलेआम कटघरे कोई पहरे नहीं ।
चाय चकल्लस चांदनी यानी चौराहेबाज़ी ,
बेशक रंग सुनहरे  लेकिन राज गहरे नहीं ।
गांव चलो दोस्तों अमरुद अब हरे नहीं ।
शहरों की आपाधापी में खरे उतरे नहीं ।।
— मनोज शाह ‘मानस’

मनोज शाह 'मानस'

सुदर्शन पार्क , मोती नगर , नई दिल्ली-110015 मो. नं.- +91 7982510985