कविता

परछाई और समय

परछाई भी समय के साथ बदल जाती है। आदमी का रंग भला कैसा हो?
पर परछाई का स्वरूप सदा एक सा होता है।
परछाई सजीव की तरह घटती-बढ़ती रहती है।
 परछाई हमारा साथ नहीं छोड़ना चाहती है।
एक जगह सिमटकर रहना भी नहीं चाहती है।
 समय कभी एक जैसा नहीं होता और परछाई कभी एक जैसी नही होती हैं।
 समय का माप करा देती है परछाई। समय सबको बांट देता है और
 परछाई खुद बंट जाती है।
 परछाई हमेशा दूसरे पर आश्रित रहती है और समय पर सदा दूसरे आश्रित रहते हैं।
परछाई घटती-बढ़ती मिटती रहती है।
और समय सदा अच्छे बुरे में बटता रहता है।
 गुजरे समय को कोई ला न सका कभी।
 परछाई को मुट्ठी में कैद कोई कर सका न कभी।
 परछाई तेरा अस्तित्व प्रकाश से है।
 उजाले से तेरा जन्म और मौत है।
 तू ही बता तेरा क्या वजूद है?
— डॉ. कान्ति लाल यादव

डॉ. कांति लाल यादव

सहायक प्रोफेसर (हिन्दी) माधव विश्वविद्यालय आबू रोड पता : मकान नंबर 12 , गली नंबर 2, माली कॉलोनी ,उदयपुर (राज.)313001 मोबाइल नंबर 8955560773