कविता

मेरा घर

एक घर की तलाश में हूँ
जो मेरा खुद का हो
जिसे मैं अपना कह सकूं
जब से होश संभाला
पिता के घर को ही अपना समझती रही
फिर पता चला
ये घर तो मेरा कभी था ही नही
यहां तो मैं बेगानी थी
किसी और घर की अमानत
फिर चल पड़ी अपने घर की तलाश में
किसी दूसरे घर
किसी बेगाने घर को अपना बनाने
जहां कुछ वक़्त लगा समझने में
कि ये घर यहां सबका है पर मेरा नही
फिर एक दिन पति ने एक घर दिया
जिसको  सजाने सवारने में
जी जान लुटा दी अपना समझकर
लेकिन अंदर से ये डर भी सालता रहा
किसी दिन पति ने बोल दिया
निकल जा मेरे घर से तो??
फिर एक दिन बेटों ने बोला
ये तो हमारा घर है न माँ।
बड़े ही प्रेम से किसी ने समझाया
कि माँ के जितने बेटे उतने घर
पर  बहुत जोर का धक्का लगा
जब बेटों के घर मे तो
एक कमरा भी नही मिला
न ही मिला थोड़ा सा भी सकून
कभी इधर तो कभी उधर
धकेल दी जाती रही
सारी जिंदगी धोखे में ही जीती रही
कभी इस घर तो कभी उस घर
को अपना कहती रही
असल मे तो मेरा कोई घर था ही नही
शायद ऊपर वाले के धाम में जाकर
एक अपना घर नसीब हो ही जाए..!!
शायद कभी अपने घर की तलाश
वहां जा कर खत्म हो जाये..!!!

— रीटा मक्कड़