कविता

शहनाई

आधुनिकता की अंधी दौड़ में
शहनाई भी खो रही है,
अपने अस्तित्व के लिए
लड़ती दिख रही है।
जाने कितने बेटे बेटियों की
शादियों में गूँजती रही
अपने भाग्य पर इठलाती रही।
दाम्पत्य बंधन का गवाह बँधती रही।
यही नहीं अंतिम यात्राओं की भी
गवाह बनती रही,
जाने वाले के विछोह का
शोकगान गाती रही
अपने सुरों में आँसू बहाती रही।
यह कैसी विडंबना है
खुशियां हो या गम
हरदम जो साथ निभाती रही
आज अपनी बेबसी की तान पर
आँसू बहा रही है,
अपने अस्तित्व की भीख
हमसे माँग रही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921