क्षणिका

क्षणिका

लोकतंत्र
लाठी भी है गोली भी है
पूछते हो लोकतंत्र कैसा है?
गोरे अंग्रेजों का जैसा था
काले अंग्रेजों का भी वैसा है
हत्या भी है आत्महत्या भी
भूख,लूट है छोटी बात
पेट पे खाओ पीठ पे खाओ
जीना मरना जैसा है।
            जिंदगी
चार कंधो के सहारे
मुक्कमल होगी सफर-ए-जिदंगी
फिर चाहे वो आग से हो
या फिर सुपुर्द ए खाक से।
— भास्कर गुहा नियोगी

भाष्कर गुहा नियोगी

मैं भाष्कर वाराणसी से पत्रकारिता से जुड़ा हूं। कविताएं भी लिख लेता हूं मेरे आसपास की घटनाएं ही कविता बन जाती है।