कविता

चार दिन की

जिंदगी सिर्फ़ चार दिन की है
इसका जी भर कर लुत्फ़ उठाइये
प्रेम, सद्भाव, भाईचारा बढ़ाइए
औरों के जितना भी
काम आ सकें, बेहतर है
रोते, मुरझाए चेहरों पर
मुस्कान ला सकें बेहतर है।
कौन जाने किस घड़ी
बुझ जाये अपना ये दिया
अच्छा है कुछ खास
कर जाएं तो बेहतर है।
राग द्वेष निंदा नफरत में
न उलझाएं खुद को,
सबके हितों की खातिर
खुद को उलझाएं तो बेहतर है।
चार दिन की जिंदगी में
हम नया इतिहास रचें
औरों के दिलों में उतर पायें तो बेहतर है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921