कविता

विजयपथ

सच कड़ुआ होता है
फिर भी अच्छा है,
बुराई लाख गुणवान हो जाये
सच्चाई से दूर रहता है।
विजयपर्व का ढोंग करना
क्यों अच्छा लगता है?
सत्यपथ पर चलने में
क्यों संकोच होता है?
बुराइयां लाख अच्छी हो जाये
विजयपथ पर नहीं चल सकती
सच्चाई का मार्ग कभी
अवरुद्ध नहीं कर सकती है।
बुराई लाख चाहे तो भी
कभी सम्मान नहीं पा सकती,
कोशिशों पर कोशिशें कर ले लेकिन
सच की राह में अटूट दीवार बनकर
भला कब तक टिक सकती है?
सच शांत, सरल, निर्मल बन
सतमार्ग पर चलती जाती,
दुश्वारियों के बीच भी हार न मानती।
क्षणिक दूर भले मंजिल लगती
पर सच्चाई धैर्य नहीं खोती है,
मजबूत विश्वास के साथ
मार्ग के हर एक काँटे
साफ करती चलती है,
अंत में बुराई पर विजय ही पाती है,
विजयपथ पर चलते हुए
मुस्कराती है पर
कभी अभिमान नहीं करती है
बस! अपना झंडा बुलंद करती है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921