कहानी

कलिका

कलिका कमरे में सिकुड़ी हुई सी बिस्तर पर बैठी थी। कमरे के बाहर से जाम टकराए जाने की आवाज़ आ रही थी। साथ में गूंज रही थी वह हंसी जो किसी भद्दे चुटकुले के बाद उन दोनों दोस्तों के कंठ से फूट रही थी।

अब तो कई महीने बीत गए थे उसे यह सब सहते। पर कर भी क्या सकती थी। बाहर बैठकर उसके बारे में अश्लील बातें करने वाला वही था जो सदा रक्षा करने का वादा करके उसे ब्याह कर लाया था। लेकिन उसे ऐसी संपत्ति समझता था जिसे अपने फायदे में इस्तेमाल कर सके।

वह सुंदर थी जैसे कोई फूल हो जो कुछ समय पहले ही खिला हो। माता पिता ने उसका नाम कलिका रख दिया। एक कली की तरह ही उसकी परवरिश की थी। माँ ने हमेशा एहसास दिलाया था कि तुम्हारा कोमल और सुंदर शरीर उसके लिए है जो तुम्हें ब्याह कर ले जाएगा। इसलिए उसके लिए ही इसकी रक्षा करनी है।

अपने शरीर को पति की अमानत मानकर आई थी और पूरे विश्वास के साथ उसे सौंप दिया था। जब उसका पति उससे खुश होता था तब उसे लगता था कि इतने सालों का जतन व्यर्थ नहीं गया।

फिर एक दिन वह रात आई जो थी तो पूनम की लेकिन उसके लिए गहरा अंधेरा लेकर आई थी। उस दिन उसके पति की जगह उसके दोस्त ने कमरे में कदम रखा था। वह दहल गई थी। विश्वास का टूटना कितना पीड़ादायक होता है यह उस दिन उसे समझ आया था। उसने विरोध किया था लेकिन उतना ही जितना एक गाय कसाई के सामने दिखा पाती है।

उस रात के बाद कभी सवेरा नहीं हुआ। उसके पति के चेहरे पर थोड़ी सी भी शर्म नहीं थी। पूरी बेशर्मी से उसने कहा था कि वह उसके साथ जो चाहे कर सकता है। क्योंकी उस पर उसका हक है। लोकलाज के बोझ के तले दबकर उसने भी चुपचाप उस हक को स्वीकार कर लिया।

अब तो उसका दोस्त भी पूरे हक से आने लगा था। जिस शरीर को उसने अमानत समझकर संभाला था अब उससे ही घृणा करने लगी थी। लेकिन अपने आप से की गई यह घृणा उसे कमजोर ही कर रही थी।

उसके लिए सहना मुश्किल हो रहा था। उसने सोचा कि अब बस। इस शरीर से ही मुक्त हो जाती हूँ। वह उठी और भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। अपनी ही साड़ी का फंदा बनाकर छत से लटकने जा रही थी कि तभी उसकी नज़र दीवार पर लगी काली की तस्वीर पर पड़ी।

उसने बचपन में अपनी मांँ से सुना था कि पार्वती ने असुरों का नाश करने के लिए अपने कोमल स्वरूप को त्याग कर काली का रूप धारण किया था। उसे लगा जैसे कि माँ उससे कह रही हों कि दुष्टों की दुष्टता का जवाब देने के लिए कोमलता त्यागनी होती है। शरीर को नष्ट मत करो। अपने डर अपनी कोमलता को रौद्र रूप में बदल दो। कलिका तुम काली बन जाओ।

बाहर से दोनों दोस्त दरवाजा खटखटाते हुए गालियां दे रहे थे। कलिका के भीतर जैसे माँ काली ने प्रवेश कर लिया था। उसने आत्महत्या का विचार छोड़ दिया। कमरे में नज़र दौड़ाई। ऐसा कुछ नहीं था जिसे हथियार बना सकती। लेकिन उसने माँ की दी हुई हिम्मत को हथियार बना लिया। खुद जाकर दरवाजा खोल दिया।

उसका पति गुस्से और शराब के नशे में लड़खड़ाता हुआ अंदर आया। वह इतने गुस्से में था कि बोलते हुए हांफ रहा था। उसने अपना हाथ उठाकर कलिका को मारना चाहा। कलिका ने उसे पकड़ कर धक्का दिया। वह खुद को संभाल नहीं पाया। उसका दोस्त भौंचक इस नज़ारे को देख रहा था। उसने भी कलिका की तरफ कदम बढ़ाया। कलिका ने उसे दांव दिया और कमरे से बाहर निकल गई। भागती हुई मुख्य दरवाजे से घर के बाहर चली गई।

रात के अंधेरे में उसके भीतर एक नई शक्ति का सूरज उग रहा था। उसके कदम पास के पुलिस थाने की तरह बढ़ रहे थे।

*आशीष कुमार त्रिवेदी

नाम :- आशीष कुमार त्रिवेदी पता :- C-2072 Indira nagar Lucknow -226016 मैं कहानी, लघु कथा, लेख लिखता हूँ. मेरी एक कहानी म. प्र, से प्रकाशित सत्य की मशाल पत्रिका में छपी है