कहानी

दिवाली के दीये

 

दिवाली करीब होने की वजह से पिछले कई दिनों से घर की साफसफाई में व्यस्त निशा ने आज सुबह ही समीर से कह दिया था कि वह दोनों आज दोपहर का भोजन बाहर जाकर किसी होटल में करेंगे।

एक तश्तरी में कुछ मुखवास के साथ बेयरे ने खाने का बिल रखा। समीर ने एक उचटती सी नजर बिल पर डाली। कुल 475 रुपये का बिल था। उसने जेब से निकालकर 500 रुपये का एक नोट तश्तरी में रखा।
समीर अभी वहीं बैठा था जबकि निशा उठकर बाहर की तरफ बढ़ गई।

बेयरा बिल और रुपया लेकर काउंटर पर जमा कराने जा चुका था। समीर को वहीं बैठे देख निशा वापस उसके पास आई और सवालिया निगाहों से उसे देखने लगी। उसका आशय समझकर समीर बोला, “जस्ट अ मिनट डार्लिंग ! 500 रुपये दिए हैं, पच्चीस रुपये वापस लेने हैं न !”

“उफ्फ ! समीर …यार तुम भी न, कभी कभी इतने कंजूस क्यूँ बन जाते हो ? क्या पच्चीस रुपये उस बेयरे को टिप भी नहीं दे सकते ? अरे इसी टिप के पैसों से तो इनका घर चलता है, नहीं तो इनकी सैलरी होती ही कितनी है ?” कहती हुई निशा झल्ला पड़ी थी।
उसकी नागवारी को महसूस कर समीर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और पैसे लिए बिना ही निशा के साथ रेस्टोरेंट से बाहर आ गया।

क्षुधापूर्ति के बाद दोनों ने समीप के मॉल में जाकर जमकर खरीददारी की और अपनी कार से वापस लौट रहे थे कि अचानक निशा ने समीर से कार रोकने को कहा।

कार से उतरकर निशा सड़क के किनारे दीये बेचनेवाली बुढ़िया के पास जा पहुँची और बोली, “दीये कितने के हैं अम्मा ?”

“ले, लो बिटिया, सही भाव लगा दूँगी। कितने दूँ ?”

“मुझे कम से कम 50 दीये तो लेने ही हैं, अगर ठीक से दो तो।”

“बेटा ! वैसे तो 50 दीये के डेढ़ सौ रुपये होते हैं, लेकिन सुबह से अभी तक बोहनी नहीं हुई है सो मैं तुमसे सौ रुपये ही ले लूँगी।” कहते हुए वह वृद्धा टोकरी में रखे दीयों में से दीये गिनकर एक पन्नी में रखने लगी।

“नहीं, अम्मा ! बहुत ज्यादा पैसे माँग रही हो। क्या लगा है इनमें ? मिट्टी के ही तो बने हैं ये दीये ! कुछ कम कर दो पैसे !”

“नहीं, बेटा ! सौ रुपये से कम में तो नुकसान हो जाएगा। मिट्टी भी अब कहाँ सस्ती रही पहले जैसी ?” कहते हुए उसने गिने हुए दीये निशा की तरफ बढ़ा दिए।

सौ रुपये उसे देती हुई निशा ने दो टूक कहा, “अम्मा ! दस रुपये वापस दे दो, नहीं तो अपने दीये अपने पास रखो।”

बुझे हुए चेहरे के साथ उस वृद्धा ने दस रुपये निशा को वापस कर दिए।

विजयी मुस्कान के साथ निशा कार में बैठते हुए बोली, “न मोलभाव करो तो ये रेहड़ी पटरी पर बैठनेवाले तो लूट ही लें। लेकिन मैं भी सब समझती हूँ इन लोगों की चाल।”

“अच्छा ! ..माजरा क्या है, जरा हमें भी तो समझाओ।” समीर ने पूछ लिया। निशा ने पूरी बात बताते हुए कहा, ” और देखो, कितनी होशियारी से मैंने मोलभाव करके दस रुपये बचा लिए।”

एक व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ समीर बोला, “वाह !.. झूठी शान दिखाने के लिए तुम पच्चीस रुपये बेयरे को यूँ ही टिप दे सकती हो, ब्रांड्स के चक्कर में बड़े मॉल्स से महँगे महँगे सामान खरीद सकती हो। तब पैसे बचाने की फिक्र नहीं होती, लेकिन जैसे ही किसी रेहड़ी वाले से कोई सामान खरीदना हो तो.. खैर गलती तुम्हारी भी नहीं है। हमारी मानसिकता ही ऐसी बन गई है कि इन मजबूर व्यवसायियों से मोलभाव किये बिना कोई नहीं रह पाता बिना उनका दुःखदर्द जाने समझे।
जिस बूढ़ी अम्मा को दस रुपये कम देकर तुम खुश हो रही हो, क्या तुमने उसके बारे में यह सोचा कि उम्र के इस पड़ाव पर आज त्यौहार के दिन भी वह सड़क किनारे दीये क्यों बेच रही है ? जाहिर सी बात है उसकी मजबूरी ही उससे यह सब करवा रही है लेकिन एक दूसरी बात भी है जिसपर किसी का ध्यान नहीं जाता।
ये बूढ़ी अम्मा गरीब हैं लेकिन साथ ही स्वाभिमानी भी हैं। इन्हें किसी के सामने हाथ फैलाना गवारा नहीं इसीलिए दीये बेच रही हैं। ये अपने आत्मसम्मान व स्वाभिमान के साथ जीने की कोशिश कर रही हैं, हम जैसे लोग इनसे मोलभाव करके इनके वाजिब हक पर डाका डालते हैं, इनकी मदद करने से कतराते हैं और जब कभी ऐसे लोग हालात से मजबूर होकर दर दर भीख माँगते हैं, हम अपना परलोक सुधारने के लिए स्वार्थवश इन्हें भीख देते हैं।
क्या तुम दिल से यह चाहती हो कि ये बूढ़ी अम्मा भी मजबूर होकर भीख माँगें ?”

“नहीं नहीं समीर ! मैंने इस तरह से तो सोचा ही नहीं था। तमाम सरकारी बंदिशों व दुश्वारियों को झेलकर ये लोग आत्मनिर्भर बने रहें इसके लिए हमें भी इनका यथासंभव सहयोग करना ही होगा। तुम एक मिनट रुको, मैं अभी आती हूँ।” कहती हुई निशा उस वृद्धा की तरफ बढ़ गई।

उसके पास जाकर सौ रुपये का एक नोट देते हुए बोली, “ये लो अम्मा ! हमारी तरफ से बच्चों के लिए दिवाली की मिठाई ले लेना।”

वह वृद्धा मुस्कुराते हुए बोली, “जुग जुग जियो बिटिया ! लेकिन हम भीख नहीं लेते। अगर तुम हमारी मदद करना ही चाहती हो तो और दीये खरीद लो।”

“ठीक है, तो पचास दीये और पैक कर दो।”
कुछ देर बाद दो सौ रुपये का नोट जबरदस्ती उस बूढ़ी अम्मा के हाथों में ठूँसकर कार की तरफ वापस आते हुए निशा के चेहरे पर अब आत्मसंतुष्टि के भाव थे।

 

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।