गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल     

मैं तमाशा देखने जाऊँ कि मछली मारने
रख दिया है सामने प्रस्ताव दो-दो यार ने

देर तक ये प्यार से अवलोकने का फल रहा
लाल मुझको कर दिया है गुलमुहर की डार ने

एक मैं हूँ एक तुम हो और कोई भी नहीं
ख़त्म दुनियादारियाँ कर दीं तुम्हारे प्यार ने

जीत मुझको बाँध लेती जीत जाता मैं अगर
हर तरह आज़ाद रक्खा कोहबर की हार ने

दिल लुभाया फूल ने तो हाथ छूने को हुए
चिन्ह अब तक हैं लगायीं जो खरोंचें ख़ार ने

दे न पाये तुम किसी को काँच का भी आवरण
सैकड़ों दीपक बुझाये इक हवा के वार ने

अब यही तो बात है अभियान कैसे हो सफल
हम लगे दम झोंकने तो वो लगे हैं टारने

— केशव शरण 

केशव शरण

वाराणसी 9415295137