कविता

दीया

करुण स्वर से बोली मुन्नी
विनय भाव से जोडी हाथ
सड़क किनारे छांव पेड़ के
बेचने लाई दीये साथ।
बाबूजी! ओ बाबूजी!
ले लो न दीया नहीं फरेबी
नहीं चाईना बापू ने है गढा दीया।
है सस्ते और प्रीत धुले
जगमग-जगमग खूब जले।
रंगों से मैंने सजाया है
सबके मन को भाया है
मिट्टी का ये प्यारा दीया।
बाबूजी! ले लो न दीया
अम्मा की उम्मीद बापू की
कलाकारी है,सच बाबूजी।
इसी से चलती जिविका हमारी।
मिलजुल मनाओ दीपोत्सव
बस जलाओ मिट्टी का दीया
सुनो सुनो ओ बाबूजी।
हमारी निर्धनता भी मिट जायेगी
बस इतने उपकार से।
मुन्नी भी मना लेगी इस बार
दीवाली प्यार से।

— लता नायर

लता नायर

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका सरगुजा-छ०ग०