हास्य व्यंग्य

चैतन्य चूर्ण

यह तो खुशी की बात हुई कि एक र‌ईस के मासूम बेटे ‘आर्यन’ को जमानत मिल गई! इस ख़बर से सांस में सांस आई! नहीं तो नाक फंसी हुई थी। क्योंकि उसके जेलावास से देश की इज्जत, धर्मनिरपेक्षता और कानून सभी खतरे के जोन में आ ग‌ए थे। प्रकारांतर से यह संवैधानिक संकट की स्थिति थी। आखिर बेचारा एक निर्दोष, लाचार और बेबस युवा नाहक ही प्रताड़ना का शिकार हो रहा था। तमाम टी वी चैनलों के साथ ही बौद्धिकता के लबादे में दबे-छिपे बैठे एजेंडाग्रही अपने-अपने तरीके से इसका कवरेज कर रहे थे। महानता से लबरेज इस देश के महान भविष्य के लिए ऐसा कवरेज अपरिहार्य हो उठता है। इधर कुछ महीनों से गांजा राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में है, चिलम और हुक्के के रिवाज से गांजे ने जैसे अपना पुरातन रिश्ता ही तोड़ लिया हो! इसमें दोष आधुनिक खाद्य प्रोसेसिंग तकनीक का है। नहीं तो, भला क्या कोई गांजे से पाउडर बना पाता और रिश्ता टूटता! खैर अब जमानत हो जाने से सोशल मीडिया के ‘गंजेड़ी’ बौद्धिकों और मीडियाकर अपनी बौद्धिक जुगाली का दम लगाकर निश्चित ही खिसक लेंगे और यह ‘गांजा विमर्श’ राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब हो जाएगा।

आज के डिजिटली युग में रेटिंग का चक्कर भी कुछ अजीब है। न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया के बुद्धिमान प्राणियों द्वारा बाल की खाल ऐसी निकाली जाती है कि न बाल बचता है और न उसकी खाल, ले देकर यदि कुछ बचता है तो वह है इनको मिली रेटिंग। लाइक और कमेंट की रेटिंग किसी को मंचासीन कराने में सहायक है तो न्यूज़ मीडिया में व्यूज वाली रेटिंग विज्ञापन की उपलब्धि में। इन दोनों रेटिंगों के चक्कर में यह महान देश अकसर किसी न किसी जंजाल में फंसा हुआ दिखाई देता है! इधर आर्यन वाले जंजाल में फंसने से देश का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था। ऐसी स्थिति में देश को अकेला छोड़ कर भला किसका मन मार्निंग वाक पर जाने के लिए कहेगा? इसमें तो सुबह की स्वर्णिम किरणें भी मन को हर्षित नहीं कर पाएंगी! इसीलिए इस वाक को स्थगित कर मैं देश का मौसम खुशगवार होने का इन्तजार कर रहा था। आखिर उस मासूम को जमानत मिली और देश पर छाया जंजाल कटा! फिर क्या था ! अगले ही दिन मैं भी इस वाक के लिए घर से बाहर आ गया। मैंने सुबह के शान्त सुकूनदार अलसाए वातावरण में अपने कदम सीधे चौराहे की ओर बढ़ा दिए थे।

चौराहे से वापस मुड़ने वाला था कि एक मजदूरनुमा व्यक्ति मेरी ओर लपकता हुआ दिखाई पड़ा। यह तो घिस‌इया है, जो कुछ कमजोर हो चला है। शायद काम की तलाश में इस लेबर चौराहे पर आया है, सोचते हुए मेरे मुंह से अचानक फूटा, “अरे घिस‌ई! कहां रहे इतने दिन?” वह मेरे पास आकर खड़ा हो गया था, बोला, “अरे साहब कुछ पूछौ मति, परधानी के चुनाव में हम गांव ग‌ए रहेन, उंही बीच ई कोरोना-फरोना ससुरा फैलि गा, बस तब से गांव‌ई में फंसे पड़े रहे, ई बीमारी कुछ निमनान तब ल‌ऊटे।” इस बीच फावड़े को अपने कंधे से उतार कर उसे पैरों के बीच में रख लिया और टेंट में लपेटी कोई चीज निकालने लगा। जो एक छोटी सी पुड़िया थी। इसे देखते ही भड़कते हुए मैं बोला, “तुम्हारी गांजे की लत अभी छूटी नहीं, इसे लेकर घूम रहे हो तो किसी दिन धराओगे भी।” मेरी बात से मुस्कुराकर उसने कहा, “अरे साहब, आपकी बात तो हम आज तक पक‌‌ड़े बैठे हैं, मुला आप भूलि ग‌ए का?” फिर मुझे याद दिलाने की कोशिश में उसने कहा, “अरे ऊ जेलवा में अपनी भिजिट वाली बात ज‌ऊन बतायो रह्यो..कुछ याद कर‌उ..तब से गांजा हम छाड़ि दिए हैं!”

उसकी बात ने मेरी स्मृति को कुरेदा तो मुझे अपनी जेल विजिट वाली बात याद आ गई। जेल में आयोजित महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में एक मंचीय वक्ती ने जब महिला कैदियों से रानी लक्ष्मीबाई जैसा देशभक्त बनने का आह्वान किया तो मुझे समझ में नहीं आया कि इन्हें ऐसा किस स्थान पर बनना है जेल में रहते हुए या कि जेल से छूटने के बाद बाहर आकर! लेकिन इस सशक्त और ओजपूर्ण अपील के बावजूद महिला कैदियों के चेहरे पर उदासी और बेबसी का भाव था। उनकी ऐसी मनोदशा पढ़कर मैंने जेल से उनके छूटने की संभावना का पड़ताल किया। पता चला अधिकांश महिला कैदी भारत-नेपाल बार्डर से सटे जिलों की हैं, जो वर्षों से एन डी पी एस ऐक्ट में बंद हैं, ये हजार-दो हजार रूपए की लालच में धोखे से नशीले पदार्थों की कैरियर बन जाती हैं। इनकी जमानत कराने वाला कोई नहीं है। इस तथ्य से मैंने समझ लिया कि महिला कैदियों को जेल में रहते हुए देशभक्ति के साथ रानी लक्ष्मीबाई बनने के लिए उकसाया जा रहा है। संयोग से इसके कुछ दिन बाद ही मुझे घिस‌ई मिला था। वह बंडी के खीसे में छिपाए एक छोटी थैली में चिलम और गांजा लिए था। नसीहत देने के अंदाज में मैंने इस जेल विजिट की बात उसे जरूर सुनाई थी, लेकिन महिला कैदियों को रानी लक्ष्मीबाई बनने की सीख देने वाली बात को गोल कर गया था। इस बात को इसलिए छिपाया था कि कहीं गांजे के साथ पकड़े जाने पर जेल में जाकर वह देशभक्ति के भाव में अजाद और भगतसिंह जैसा क्रांतिकारी न बन बैठे। मुझे पता है कि मेरी बातों पर उसे खूब भरोसा है, इसीलिए केवल उन महिला कैदियों के जेल में सड़ने की बात बताकर उसे डराया था जिससे कि वह गांजा पीने की अपनी आदत छोड़ दे।

“अरे साहब जी ई तो ख‌इनी हवै..” कहते हुए हथेली पर रख उसे मलने लगा। गर्द उड़ाकर उसे अपने मुंह में रखने ही वाला था कि न जाने क्यों मैंने भाईचारा निभाने के लिए, उसकी हथेली से चुटकी भर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही सही, इस खैनी को लेकर होंठों के बीच दबा लिया। अचंभित सा वह मुझे देखते हुए अगले ही पल उसने फावाड़ा अपने कंधे पर रखा तथा ‘देर हो रही है’ कह चलता बना। मैं उसे देखता रह गया।

अचानक जैसे कुछ होने लगा। दिल-दिमाग हलका हो रहा था। अपने अंदर आते इस परिवर्तन को समझने के लिए आंखे मुलमुलाकर सामने सड़क के किनारे पेड़ों पर खिले फूलों और आसपास की अट्टालिकाओं को फुल दृष्टि से देखा। अरे यह क्या!! सब कुछ गुल गुलशन और गुलफाम जैसा नजारा..बेचारी महिला कैदियों की जमानत कराने वाला कोई नहीं..बिल्कुल सही!! होना भी नहीं चाहिए..उन्हें जमानत दिलाना समाजसेवा की ढकोसलेबाजी होगी। सच्चा समाजसेवी या देशभक्त पहले उन कैदी महिलाओं को ‘आर्यन’ जैसी रसूखदार माली-हालत में ले आएगा। उसने फिर आंखे मुलमुलाई..अरे! क्या हुआ इन महिला कैदियों को..? सब के चेहरे आर्यन जैसे!! ये नामचीन बुद्धिजीवी..पत्रकार..और..मीडिया हाउस..बड़े-बड़े नेता जेल को घेरे खड़े हैं..नारा लग रहा है..वह भी सुन रहा है..मासूम…नहीं..कानून…नहीं संविधान..नहीं धर्मनिरपेक्षता.. नहीं-नहीं ये सभी खतरे में! इन्हें छोड़ो.. नारे का शोर बढ़ता जा रहा है..ये जज महोदय..यहां क्या कर रहे हैं? इनके भी चेहरे पर हवाईयां उड़ रही है..? वे चले ग‌ए..जेल का गेट खुल चुका है..ये कैदी महिलाएं..नहीं आर्यन है…नहीं-नहीं महिला कैदी ही हैं सब जेल से बाहर आ रहीं हैं..उन्हेंं जमानत मिल गई है..क्या मजा आ रहा है… मैं घर पहुंच गया हूं, पत्नी की डाट खाने के बाद यह पता चला। मेरे इस ‘चैतन्यावस्था’ को भांपकर उन्होंने मुझे खूब डाटा और मेरी लानत-मलामत की। चुटकी भर उस चैतन्य चूर्ण का प्रभाव था कि मैं हवा में उड़ने लगा था । भारहीनता आनंद का द्योतक है। मतलब हवा में उड़ना आनंदित करता है।

खैर, मेरे लिए चैतन्य-चूर्ण लेना अपरिहार्य नहीं और न ही इसे लेने का मैं हिमायती हूं। इसकी जरूरत या तो मंचासीन लोगों को या मंचारूढ़ होने के लिए पड़ती है। जहां से इन्हें कुछ भी बोलने-कहने और सोचने की क्षमता हांसिल होती है, यह ‘रेटिंग’ ही उनके लिए चैतन्य-चूर्ण है और इसी के अनुपात में ही उन्हें ‘चैतन्य’ भी माना जाता है। फिर तो ये कुछ भी बोलें या बाल की चाहे जितनी खाल निकालें, सब जायज है, इन्हें टोकने से बाज आना चाहिए। टोकने से इनकी नाक फंसती है, जो इनके आनंद प्राप्ति में विघ्न-बाधा है। ‘आर्यन’ में रेटिंग की अपील है इसलिए आनंददाता भी ‌है, जबकि एन डी पी एस ऐक्ट में बंदी असहाय उन महिला कैदियों की बात में रेटिंग का कोई प्रश्न अन्तर्निहित नहीं है।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.