कविता

पिता की छांव

हम चैन से सोते हैं,वो काम पे होते हैं।
निज दर्द छिपाकर के,तन्हाई में रोते हैं।
वो जिम्मेदारी के ,हर बोझ को ढोते हैं
हम उनकी छाया में,हर ख्वाब संजोते हैं
टूटे हुए मोती को,माला में पिरोते हैं
हम कैसे ब्यां करें, पिता ऐसे होते हैं।

वो धूप में जलते हैं,हम छांव में होते हैं
हम चांद,सितारे हैं ,पिता अंबर होते हैं।
जब बात बात पर हम,गुस्सा हो जाते हैं
वो हमें मनाने को,निज प्यार लुटाते हैं।
निज बच्चों की खातिर,सुख चैन को खोते हैं
हम कैसे ब्यां करें, पिता ऐसे होते हैं।

हर बात पे तात मेरी, सहमति जताते हैं
गलती हो जाने पर,थोड़ी डांट लगाते हैं।
थोड़े से सख्त होकर,सब फ़र्ज निभाते हैं
हम राम न बन पाए,वो दशरथ बन जाते हैं।
हमें फिक्र नहीं कोई, वो फिक्र में सोते हैं
हम कैसे ब्यां करें, पिता ऐसे होते हैं।

गर साथ में हैं पापा,सब खिलौने अपने हैं
वरना ये सभी चीजें, मेरे लिए सपने हैं।
हमको अमृत देकर, वो विष पी जाते हैं
उपकार पिताजी के,हम गिन नहीं पाते हैं।
बिन पिता सुता और सुत, दोनों ही रोते हैं
हम कैसे ब्यां करें, पिता ऐसे होते हैं।

— प्रदीप शर्मा

प्रदीप शर्मा

आगरा, उत्तर प्रदेश