कविता

कागज कलम किताब

कोरे कागजों पर
जब चलती कलम
उकेरती मेरे मन के भाव
सुख, दुख, भावनाएं संवेदनाएं
जिसे व्यक्त करना कठिन हो जाता,
तब पन्ने पन्ने शब्दपुष्पों से
सृजित मूक स्वर
उतरकर कागजों पर
फिर एकत्र हो बन जाती किताब।
और बोल उठती हैं हमारे मन के बोल
पहुँचने का रास्ता पा जाती हैं
मिलकर कागज कलम के द्वारा
बनकर किताब
जाने अंजाने लोगों के सामने जाने का।
सदियों सदियों तक मेरी आवाज को
कहे अनकहे जिंदा रखेंगें मुझे
मरने के बाद भी
पीढ़ी दर पीढ़ी।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921