लघुकथा – होली
रामू – पिता जी मोहन दिख नहीं रहा है क्या वो इस बार होली खेलने नहीं आएगा।
पिता जी- बेटे वो नहीं आ पाएगा।बेटा शहर ऐसी जगह जो एक बार चला बस जाएं फिर लौटता नहीं है। जाने क्या हैं इस शहर में।
रामू- बहुत बुरी जगह ये शहर मैं तो कभी नहीं जाऊंगा। और न किसी अपने को जाने दूंगा।
पिता जी-शाबश बेटे गांव की मिट्टी यूं ही जुड़े रहना । ये भूमि हमारी जन्म भूमि है। हमें इससे प्यार करना चाहिए।
रामू- लेकिन इस बार होली कौन खेलेगा मेरे साथ । में कबसे इंतजार कर रहा था।इस दिन का।
पिता जी-अरे बेटे निराश न हों मैं खेलूंगा होली। तुम बिल्कुल भी चिंता नहीं करो।ऐसी होली होगी। तुम सब चिंता भूल जाओगे।तुम बस तैयारी में जुट जाओ।
— अभिषेक जैन