लघुकथा

परोपकार

दरवाजे पर कोई था, कॉल बेल बज रही थी। वीणा ने दरवाजा खोला देखा, अमित खड़ा है।

बोल पड़ी, “अरे वाह, बड़े दिनों बाद आंटी की याद आयी।”

“बैठो, अभी आयी, गैस पर कड़ाही रखी है।”

और किचन में कुछ जरूरी काम करते हुए, वो अतीत के कुएं में झांकने लगी।

विमला वीणा के घर मे 5 वर्ष काम कर चुकी थी, विवाह के बाद ससुराल चली गयी थी। वीणा उसके जाने के बाद से ही बहुत परेशान थी कोई उसके जैसा मेहनती और अपना समझने वाला मिलता ही नही था। आज बहुत दिनों बाद विमला आयी थी।

“दीदी, कल ही आयी, समय ही नही मिलता, ईश्वर ने एक बेटा दिया, परिवार में बड़ी खुशहाली थी, जो भी कमाते, प्रेम से रहते थे। पर एकाएक कुछ ऐसा हुआ कि जिंदगी बेहाल हो गयी।”

“ऐसा क्या हुआ, बताओ, शायद मैं कुछ मदद कर सकूं।”

“हां, दीदी, बेटा अमित, दो वर्ष का जब हो चुका, तब तक हम इंतेज़ार करते रहे, अब चलेगा, अब दौड़ेगा। पर नही, जब सत्य उजागर हुआ, तो सिर्फ आंसू ही अपनी रेखा बनाते रहे, आज चार वर्ष का हो गया अमित, पर अपने आप उठ बैठ नही सकता, चल नही सकता। डॉक्टर को दिखाने का पैसा नही, पंडित, ओझा, आयुवेदिक दवाई खिलाई, सब बेकार।”

“सुनो विमला, कल तुम्हारे साथ सुबह कार लेकर चलूंगी, तुम्हारे बेटे को डॉक्टर के पास ले चलूंगी, मेरा भतीजा हड्डी का डॉक्टर है।”

और दूसरे दिन अमित को देख रहे थे डॉक्टर वीरेन, चेक करके बोले, “इसको पहले आपने कोई डॉक्टर को क्यों नही दिखाया, इसके पैर में कोई दिक्कत नही है, रीढ़ की हड्डी में एक छोटा सा आपरेशन करके स्क्रू लगेगा, थोड़ा खर्चा लगेगा, उसके 2 महीने बाद ये धीरे धीरे बैठ सकेगा, फिर पैरों की मालिश और प्रयास से ये चलेगा और सालभर में दौड़ेगा ।”

विमला की आंखों में आंसू थे, वो डॉक्टर साहब और वीणा के पैर पकड़ने लगी, हमलोग रोज कमाकर रोज खाने वाले लोग हैं, आपरेशन का पैसा कहां से जमा करू।

वीणा ने कहा, “चिंता न करो, अमित ठीक होगा, वीरेन इसको अस्पताल में भरती करो, अब ये घर स्वस्थ होकर ही जायेगा।”

और आज वही अमित कार चलाकर अपनी वीणा आंटी के पास मिठाई लेकर आया था, “लीजिए मुँह मीठा करिए, मुझे बैंक में नौकरी मिलेगी, मैंने परीक्षा पास की है।”

— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर