कविता

पिता का साया

पिता का साया
मानो बरगद की छाया
उंगली पकड़कर चलना सिखाया
ऊंच नीच का पाठ पढाया
पिताजी के बारे में जितना लिखो वह कम है
पिता क्या तेरे क्या मेरे
बना रहे सबके सिर पर पिता का साया
क्या लिखूं क्या बोलूं
लिखते हुए आंखें आंसुओं से अवरुद्ध हो गई है
कलम साथ नहीं दे रही है
शब्द गले में अटक रहे हैं
कागज पर लिखे शब्द आसुओं से धुंधला गए हैं
जीवन के सफर में चलती रहूं आपके सुझाए आदर्शों पर
सर पर हो पापा का साया
लगती जैसे बरगद की छाया
जेहन में विचरती
जब विगत दिनों की यादें
पापा तो पापा है
क्या तेरे क्या मेरे
पापा के बारे में
जितना लिखना चाहूं
कम ही लगता है
जब भी लिखने लगी
कलम ही ना चली
आंसुओं का अवरोध
कलम की जद्दोजहद
इस जद्दोजहद से उभरे
जो आखर
किये दिवंगत पापा को समर्पित

— गीता पुरोहित

गीता पुरोहित

शिक्षा - हिंदी में एम् ए. तथा पत्रकारिता में डिप्लोमा. सूचना एवं पब्लिक रिलेशन ऑफिस से अवकाशप्राप्त,