कहानी

मेरे अपने

पहली बार सरोजिनी रेल में अकेली सफर कर रही हैं। भीड़ भाड़! शोर- शराबा! स्टेशन पर आते-जाते  लोग! ग़ले मिल विदाई दे रहे हैं, नम आंखों से हाथ हिलाते हुए।
वह अकेली हैं। मन बेचैन हो रहा है। अपने ही दांत अपनी जीभ काटी उसने। किसे दोष दे, जब अपने ही  पराये से हो जायें? किससे शिकायत करे? आंखें बरसने को बेताब हैं।… कहाँ जाना हैं उसे? क्या सही है और क्या गलत? अपने लाडले पोते शुभम और पोती नेहा की याद सता रही है। वह खट्टी-मीठी सारी यादों को झटक देना चाहती है।… अकेले रहना सीखना होगा अब।
  सोचते-सोचते भूतकाल चलचित्र की तरह आंखों के सामने दृश्य होने लगा। छोटा-सा आलोक! प्रेम पुष्प छितराता, घर -आंगन महकाता…दादा-दादी की आंखों का तारा! घर का चिराग! सबके लाड -प्यार से आलोक हद से ज्यादा जिद्दी होता जा रहा था। किसी चीज की हठ करे और नहीं मिले, ऐसा कभी हुआ ही नहीं। उसे जीवन में न सुनने की नौबत ही नहीं  आई। बालमन मनमौजी और हठधर्मी हो गया। चाहिए मतलब, चाहिए। संयम, समर्पण, सहयोग, सहकारिता की जरूरत ही महसूस नहीं हुई कभी। अपनी धुन में रमता आगे बढ़ता रहा वह! पढ़ाई में अग्रणी था वह! सब कहते-‘ माता-पिता  का नाम रोशन करेगा बेटा! भगवान ऐसा होनहार सपूत सबको दें। अपनी लगन और मेहनत से उसने मनचाहा मुकाम भी पा लिया।’ कॉलेज के मौज मस्ती भरे दिन! उसकी मुलाकात रोझी से हुई। विपरीत रीतिरिवाज और भिन्न संस्कारों में पली रोझी से शादी न करने के लिए उसे मनाया गया। घर-परिवार और समाज का डर भी दिखाया गया उसे। लेकिन नहीं मानी उसने किसी की बात! जवानी के उन्माद में थोड़े दिन प्रेम की रिमझिम होती रही। धीरे- धीरे तपती, चुभती धूप -सी उठते- बैठते घर में कलह होने लगा।’ मैं क्यों करूं घर के काम?  आप भी संभालो।’…घर की किलकरियाँ की मधुरिम ध्वनि में असामंजस्य का जहर घुलने लगा। आलोक और रोझी को मां में ही बुराई नजर आने लगी। ‘आपके लाड- प्यार ने शुभम और नेहा को बिगाड़ा है। आप हमें खुश देखना ही नहीं चाहतीं। ‘ बहू बार -बार उलाहना देती। आंखों से गंगा जमुना बहाती। अपनी बात मनवाने में रोझी माहिर थी । आलोक के बच्चे, अपने पोते शुभम और नेहा से उसे बहुत ज्यादा लगाव हैं। बच्चे अब सयाने हो गए थे। इस घर में शायद अब उसकी जरूरत नहीं रही। लेकिन अपने पति के वियोग में  गमगीन मां की वेदना आलोक भी कभी महसूस नहीं कर पाया। ‘स्वार्थी, मतलबी।…नहीं… नहीं… मेरा बेटा है वह। मैं उसे बद्दुआ नहीं दे सकती।  बदनसीब हूं…।’ मन- ही मन बुदबुदाती रहती।
आज आलोक का मूड कुछ ज्यादा उखड़ा- उखड़ा लग रहा था। सहज ही उसने पूछ लिया, ‘ क्या हुआ बेटा? क्यों उदास हो?’ रोझी को मां- बेटे का प्यार कभी नहीं सुहाता था। आलोक भी आजकल चिड़चिड़ा हो गया था। “मां, मैं थककर आया हूँ। आप हो कि आते ही शुरू हो जाती हो। थोड़ा तो सबर करो।” आश्चर्यचकित निःशब्द हुई वह। मेरा बेटा। गुणगान करते न थकती थी कभी। कांच की गिलास हाथ से छूटकर टूट गयी। “ओहो! मेरी प्यारी गिलास तोड़ दी आपने। इतनी सुंदर गिलास, ढूंढ- ढूंढकर लायी थी मैंने।” रोझी की कर्कश आवाज से अपमानित हुई सरोज (आलोक के बाबूजी उसे प्यार से सरोज कहते) का दिल छलनी हो गया। दुख आलोक की उदासी और बेरुखी का भी था। ‘बीबी के आते ही मां परायी हो गयी? काश, मैं मेरा अपना ध्यान रखती। अपना तन-मन-धन  सब कुछ लूटा दिया था उसने आलोक की खुशी के लिए। रोझी की जी हुजूरी भी की। बच्चों के लिए सारी इच्छाएं-आकांक्षाएं भुला दी। कभी अपने बारे में सोचा ही नहीं। न जीवनसाथी के संग कभी सैर सपाटा कर पाई वह। अब तो रूठ कर चले भी गए आलोक के बाबूजी। आज उसे  उनकी बहुत याद आ रही हैं। “अति विश्वास न करो, देखो, कहीं पछताना न पड़े।” कई बार समझाया भी उन्होंने । …कभी रोमांटिक हो जाते तो कहते, “जानम, हम भी तो आपके हैं, आप हमारी जान हो, चलो कहीं घूम आते हैं।… चले?” ‘हां… कहना चाहती, पर बच्चों की चिंता से चिंतित हो कहती ‘ना, अभी नही। बच्चे छोटे हैं अभी तक। दोनों अपनी ड्यूटी पर चले जायेंगे,तो बच्चों का ध्यान कौन रखेगा?” “चौकीदार हो क्या तुम?” वह हंसकर टाल देती। कल-कल  करते-करते  समय बीतता रहा,आलोक के बाबूजी ने संसार से ही विदा ले ली। घर आ रहे थे, किसी कार वाले ने बाइक को ठोक दिया। हादसा इतना भयंकर था कि वहीं अमित जी के प्राण पखेरू उड़ गए थे। अकेलेपन से जूझती अब वह परेशान रहने लगी थी। किसी से मिलना जुलना… बतियाना उसे अच्छा नहीं लगता। तेज आवाज से बेचैनी होती। शायद वह कर्कशा तो नही हो गयी?  यथार्थ के धरातल पर आते ही दुबारा वह सोचने लगी। क्या करूं जिससे घर में एकसूत्रता रहे?  घर से गांव जाने के लिए निकली थी। कुछ पैसे और कपड़े और गहने लेकर। मन हैं कि अपनों को छोड़कर जाने की बात मान ही नहीं रहा था। ‘सरोज, तुम गलत कर रही हो। जोड़ने की बजाय तोड़ रही हो।’ लगा जैसे अमित धिक्कार रहा है। उसे आभास हो रहा था, जैसे नन्ही छकुली नेहा उसे पुकार रही है। अपनी तोतली बोली से उसे आवाज दे रही है। गाड़ी चलने में कुछ देरी थी अभी। नजर बार- बार किसी को ढूंढ रही थी। मोबाइल की रिंग टोन घनघना रही थी। सहसा उसने देखा भीड़ को चीरता आलोक भागते हुए उसकी तरफ आ रहा हैं। दूर से ही उसने देख लिया था उसे। “मां” अबोध बालक की तरह लिपट  कर रोने लगा वह। “मां, मुझे माफ़ कर दो।”आंसू छलक पड़े, मां- बेटे के मिलन की गवाही बनने के लिए। “घर चलो, अपने घर, चलो मां….”
मन का पीर आंसुओं से धुल गया।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८

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