कविता

घर का हिस्सा

आंखों के सामने से रिश्ते का झूठा नकाब हट गया ,
जब एक समझा जाने वाला कमरा दो हिस्सों में बट गया ।
हर पल जहां मस्ती और खुशियों का आलम था ,
उसे उजाड़ने वाला ना जाने वो कौन सा जालिम था ,
हैंगर पर टंगा सालों से वह पुराना कपड़ा ,
उस दिन कुछ बेहाल सा था सीढ़ियों पर पड़ा ,
कुछ चित्र बनाए थे हमने कुछ लकीरें खींची थी ,
वो जो दरवाजे के पीछे थी..
कुछ चप्पलों को भी जगह बदलनी पड़ी जो पलंग के नीचे थी ,
छज्जे कोने से संदूक का किस्सा भी छठ गया ,
जब एक समझा जाने वाला कमरा दो हिस्सों में बट गया ।
सफाई  हो रही हैं समझ कर ताखे भी चुप थे ,
वहां की चीजें ना रखे जाने पर ,
बोले कुछ यूं…..
अरे  कुछ तो रखो ,
मै खाली ही रह गया हूं ,
बंटवारा रीत है जमाने का ,
हमें तो उम्मीद नहीं थी…
पर शायद किसी को इंतजार था ,
मां के गुजर जाने का ,
इत्मीनान से अपना दुख सुनाया छज्जे के ,
दूसरे कोने से बेघर किए गए बर्तन और कढ़ाई ने ,
वैसे तो 10 इंच की मोटी दीवार है हमारे घर में ,
पर उससे कई गुना मजबूत ,
दीवार बनाई एक इंच की लकड़ी की प्लाई ने ,
किताबे तो खुलकर मुस्काती थी उस चारदीवारी में ,
उन्हें भी कहां मज़ा अब खुली अलमारी में ,
देखते-देखते..
घर की किताब से कोटरी नाम का पन्ना ही जैसे फट गया ,
जब एक समझा जाने वाला कमरा दो हिस्सों में बट गया।।
— अर्चना कुमारी पटेल 

अर्चना कुमारी पटेल

चैनपुर, सीवान, बिहार