कविता

एक साया

मन में बेचैनी संग
अनचाहा डर समाया था,
उलझनों का फैसला मकड़जाल
जाने क्यों समझ से बाहर था।
नींद आँखों से कोसों दूर थी,
जैसे नींद और आँखो की
न कोई प्रीति थी।
कैसे भी चैन नहीं मिल रहा था
बेचैनी से बचने के चक्कर में
मैं बार बार बाहर भीतर आ जा रहा था,
पर सूकून का ओर छोर लापता था।
सच कहूं तो खुद के साथ साथ
ईश्वर पर गुस्सा भी आ रहा था,
मेरे गुस्से का असर शायद
उस तक पहुंच गया था।
फिर तो कमाल हो गया
शायद ईश्वर भी परेशान हो गया
ऐसा लगा कि ईश्वर मुझसे कुछ कह रहा है
पर क्या ये समझ में नहीं आ रहा था।
फिर ऐसा लगा एक साया आया
मेरी बांह पकड़ बिस्तर पर लाया
मुझे जबरन लिटाया
मेरे सिर पर हाथ फेरा और लुप्त हो गया
पर मेरी हर उलझन जैसे हर ले गया
क्योंकि मैं चैन की नींद सो जो गया
अपनी उपस्थिति का वो अहसास छोड़ गया।
कौन था वो ये तो मुझे पता नहीं
पर मुझे सूकून भरी छांव जरुर दे गया,
जैसे अपना कोई क़र्ज़ उतार गया
फिर मिलने का आश्वासन भी दे गया
पर कब, कहाँ और कैसे
ये तो बताया ही नहीं पर
चुपचाप मेरे मन में अपनी छवि छोड़ गया।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921