लघुकथा

लघुकथा – ज़िन्दगी

जिंदगी क्या है मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूं. पहले वह मेरे पास थी, पर जैसे जैसे ही मैं उसके पास आ रहा हूं वह मुझसे दूर होती जा रही है , एक अबूझ, अनाम, चिरंतन रहस्य की तरह.
मुझे ठीक से याद नहीं कि मेरी पहली मुलाकात उससे कब हुई लेकिन वह शाम का समय था. ढलते हुए सूरज की किरणें किसी छोटे बच्चे की तरह अठखेलियां कर रही थी. धूप छांव की भागदौड़ हर शाम की तरह यथावत थी. सूरज के चारों ओर बिखरी लालिमा उस दूर तक फैले आसमान में आभास करा रही थी कि इस संसार में कुछ भी शाश्वत ना होते हुए भी दूर तक रंग बिखेरने के लिए कितने तेज की आवश्यकता होती हैI वह समा देखने लायक थाI एक तरफ जाता हुआ सूरज, दूसरी तरफ उगता हुआ चांद. एक तरफ ऊष्मा का दमन, दूसरी तरफ शीतलता का स्पंदन. क्या यही अटल सत्य है.
जिस मैंने बहुत चाहा वह मेरे सामने ही मुझसे दूर जा रही है और मैं उसे रोक भी नहीं पा रहा हूं. अगर एक का आगमन दूसरे का विगमन होता है, तो किसे प्रथमिकता दी जाए. आने वाले का आलिंगन किया जाए या जाने वाले का विछोह या और कुछ भी संभव है. आज जब वो जा रही है तो महसूस हो रहा है कि ज़िंदगी कितनी गहरी होती है. आज मैं उस गहराई में डूब रहा हूं. आज मेरा प्रिय, मेरा अजीज मुझसे दूर जा रहा है. एक अजीब सी लहर मुझे अपने साथ-साथ अनंत सागर की गहराइयों में डुबोये चले जा रही है. मेरे साथ डुबने वाले कुछ दूरी तक आकर वापस किनारों पर लौट रहे हैं. शायद वो और डुबने से डर रहे हैं. उनके चेहरे का भी भय मुझसे छूप नहीं पा रहा है. लेकिन यह भी एक सत्य है कि जिस इंसान में जितनी गहराई है वह उस गहराई तक ही डुब पाता है. उसके बाद वापस आने के सिवा कोई और रास्ता शेष नहीं रहता.
किसी शिखर पर फतह करने वाला व्यक्ति भी कुछ देर वहां रुककर वापस आ जाता है. जाने की तरह वापस आना भी तय है. लेकिन यह एक दिमागी सोच है मन इस डुबने से परे है. मन इस डुबने में यकीन नहीं रखता. मन के मुताबिक डूबने का संकल्प यदि कर ही लिया है तो गहराई क्या चीज है बस फिर तो डूबते चले जाना है. कोई साथ दे, कोई साथ ना दे, कोई फर्क नहीं, कोई गम नहीं, कोई खुशी नहीं. इंसान जितना डूबता है आस्था उतनी प्रघाड़ होती जाती है. लेकिन जिसकी आस्था डूब जाए वह फिर नहीं डूब पाता. अब तो उसका वापस आना तय है. आज मैं भी डूब रहा हूं क्योंकि वह मुझसे दूर जा रही है. कभी उसने ही साथ होने का वादा किया था. अपनी ही कसम खाई थी.
उससे ठीक पहली बार मिलन की तरह आज वही शाम का समय है. आज खुद को खुद से तोड़कर अलग हो रही है. वो जितना दूर जा रही है मैं उतना डूबता जा रहा हूं. अब कोई एहसास, कोई सुख कोई दुख शेष नहीं. जब तक हमारे आसपास भौतिक वातावरण रहता है हम अपेक्षा करते हैं परंतु हर किसी की सारी अपेक्षाओं की पूर्ति संभव नहीं. अतः अपेक्षा होगी तो दुख भी होगा. आज जब कोई अपेक्षा ही नहीं तो दुख कैसा. सुख को अपने पास कैद करके रखना भी तो एक अपेक्षा है. उसे छोड़ दो उड़ जाने दो. वह अपेक्षा नहीं होगी तो दुख भी नहीं होगा. जब दुख ही नहीं तो चहुँ ओर सुख ही सुख होगा.
यह नियति की एक विडंबना ही है कि उस क्षितिज़ तक फैले नीले आसमान में चांद व सूरज का मिलन क्षण भर का होता है ,उसी तरह जैसे जिंदगी और मौत का. उसको क्या कहेंगे जिंदगी का जाना या मौका का आना. अशाश्वत संसार का एक शाश्वत सत्य जिसे बहुत चाहा आज वह जा रही है और जिस से रूबरू होने की स्मृति दे स्मृति पटल को याद नहीं वह आ चुकी है अपने आलिंगन में लेने को आतुर.
मैं विदाई भरी नजरों से उसे विदा कर रहा हूँ और अपनी आखिरी सांस के साथ रसातल की उस अनंत गहराई की ओर निश्चल भाव से बढ़ता जा रहा हूँ क्योंकि अब उस प्रिय से मेरा मिलन संभव नहीं. वह और कोई नहीं, वह है, अबूझ, अनाम, चिरंतन रहस्य… वही तो है मेरी प्रिया ……मेरी जिंदगी ………..अलविदा

— डॉ. प्रगति शर्मा

डॉ. प्रगति शर्मा

9219053412 एस डी कॉलेज आफ इंजीनियरिंग मुज़फ़्फ़रनगर