एक विचार
आजकल एक नयी बहस को जन्म दिया जा रहा है कि जाति खत्म करो तो देश का विकास होगा। जाति गरीब की देखी जाती है या अयोग्य की। जाति का महत्व आपके संस्कारो से जुडता है। जाति विविधता में एकता है। हम सबका धर्म सनातन है जिसे वर्तमान में हिन्दू शब्द से परिभाषित कर दिया गया है। जाति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं।
प्रकृति ने फूल बनाये, उन्हें अलग अलग नाम और गुण खुशबू से पहचाना जाता है। पशु, पक्षी अथवा मनुष्य सबको अनेक वर्गों जातियों में बाँटा गया है। फिर सम्भव ही नही कि मानव जातियाँ खत्म हों। समाधान केवल एक है स्वयं को शैक्षिक योग्यता से आगे बढायें, समाजिक प्रतिष्ठा बढायें। अपनी जाति पर गर्व करें। दूसरो का सम्मान करें। पढना और गुणना या समझना दो अलग क्रियाएं हैं। अक्षर ज्ञान वाले केरल का नजारा देखा और सनातन संस्कृति की अनपढ वृद्ध पीढी को देख लो। वह समझदार है। धर्म अर्थ काम मोक्ष का सार समझती है। अतः आवश्यकता है कि शिक्षित के साथ गुणवान भी बनें।
हमारे खोखले जातिवाद के अहंकार व आपसी लडाई ने हमारे परंपरागत सारे रोजगार छीन लिये। प्राचीन काल मे हमारा ताना बाना सबको साथ लेकर चलने का था। सब आत्म निर्भर थे। एक दूसरे के पूरक थे। आज हम सब अपनी कुशलता के व्यापार छोड कर दूसरों के आश्रित बन रहे हैं। लोहार बढ़ई नाई कुम्हार धोबी कसेरा, सुधार, बजाज गडरिया या अन्य सब अपना व्यवसाय छोडकर पलायन कर रहे हैं। समझ नही आता इससे कैसे धर्म जाति या समाज का विकास होगा?
ध्यान रहे योग्य और समर्थ की जाति नहीं देखी जाती। मगर अलग धर्म में रीति रिवाज सभ्यता संस्कृति खान-पान पूजा पद्धति तथा संस्कार और मानसिकता अलग होते हैं जिसके कारण एक दूसरे के साथ सामंजस्य मुश्किल ही रहता है। सनातन तो सहिष्णुता का संदेश देता है मगर बाकी धर्म थोथा चना बाजे घना की तर्ज पर स्वयं का ढोल बजाते घूमते हैं।
हमारा निवेदन है कि सनातन में रहते हुए अपनी जाति पर गर्व करें और सनातन की अन्य जातियों का भी सम्मान करें। छोटी और बड़ी मानसिकता होती है, जाति नहीं।
समरथ को नहीं दोष गुसाईं। बस योग्य समर्थ सक्षम तथा संस्कारवान बनें।
— अ कीर्ति वर्द्धन