कहानी

कर्जबोध

पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान अपने एक पाठक से अचानक अप्रत्याशित मुलाकात हो गई।
हुआ कुछ यूँ कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी थी। जिसे मैं यात्रा के दौरान पढ़ रहा था। थोड़ी देर बाद मैंने पत्रिका बंद कर कुछ सोचने लगा।
सामने सीट पर बैठे 30-32 वर्षीय व्यक्ति ने मुझसे कहा कि क्या मैं आपकी पत्रिका देख सकता हूँ?
मैंने चुपचाप पत्रिका उन्हें पकड़ा दी।
लगभग एक घंटे तक वे मगन होकर पत्रिका पढ़ते रहे। फिर सधन्यवाद वापस कर दिया।
लगता है आपको पढ़ने का शौक है। क्या पढ़ा आपने? क्या पसंद आया आपको। मैंनें पत्रिका हाथ में लेते हुए पूछा
जी मेरा नाम सचिन है। मुझे कहानियां पढ़ने का शौक है, कविताएं समझ नहीं आती। ऐसे तो कुछेक कहानियां बहुत अच्छी हैं। पर सबसे ज्यादा ‘कर्जबोध’ पसंद आई।
मगर वही क्यों ज्यादा पसंद आई। मैंने तपाक से पूँछ ही लिया।
क्योंकि वो मुझे अपनी कहानी सी लगी। कुछ वैसा ही मैं इन दिनों महसूस कर रहा हूँ। लेखक ने जैसे मेरे मन को गहराई से पढ़कर शब्द दे दिया हो।
उस लेखक को जानते हैं?
नहीं। लेकिन उनका लेखन पसंद है। कभी मुलाकात हो जाये, तो मैं उनसे पूछूंगा कि उनके मन में मेरे मन के भाव आखिर आये कैसे?
एक लेखक जब कुछ लिखता है तब वह खुद को भूलकर किरदारों की जगह खुद को रखता है।तभी वो लिख पाता है, उस समय उसके दिमाग में संबंधित कहानी कविता के सारे किरदार होते हैं। मैंने कहा
मगर आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? सचिन के स्वर में आश्चर्य था।
क्योंकि मैं भी एक लेखक हूँ और उस कहानी का भी ,जो आपको सबसे अधिक पसंद आया।
अरे, तो वो आप ही हैं। सचिन ने आश्चर्य के साथ हाथ जोड़ दिए।
यानी कि मैं एक लेखक के सामने बैठा हूँ।
नहीं, मैं अपने एक पाठक के सामने बैठा हूँ। मैंने प्रसन्नता से उनके सम्मान में कहा
सचिन ने कहा-एक ही बात है। हम दोनों एक दूजे के सामने हैं।
जी ऐसा ही है, मगर मेरी कहानी आपको अपनी क्यों लगी? मैं तो आपको जानता भी नहीं।
प्रश्न जानने का नहीं है, पढ़ते पढ़ते इतना अनुभव तो हो ही चुका है कि काल्पनिक कहानियों का सच से कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में मेल तो होता ही है।लेखक भी तो आखिर आम इंसान है। इसी समाज का हिस्सा है।अपने इर्दगिर्द जो देखता, सुनता है, उसे केंद्र में रखकर शब्दों का ताना बाना बुनता है।
आपकी बात सोलह आने सच है। हम अपनी रचनाओं में ऐसा ही करते हैं।केवल एक सूत्र को कल्पना के साथ संबद्ध कर हम लेखन करते हैं।
जी, मगर आपने जिस कर्जबोध की बात लिखी है, वैसा कुछ इन दिनों मुझे खुद महसूस होता है। बस अंतर यह है कि आपके पात्र कभी मिले नहीं। मगर आपके सामने बैठा पात्र प्रत्यक्ष में भी तो मिल ही चुका है। बस वो एक मुलाकात और कर्जबोध का अहसास।
कुछ विस्तार से बता सकें तो शायद नयी कहानी और बेहतर हो सके। मैंने आग्रह पूर्वक कहा
जरूर सर, ऐसे तो मैं बाहर ही रहता हूँ ,क्योंकि मेरी नौकरी घर से काफी दूर है। तीज त्योहार में ही आना हो पाता है।
करीब चार साल पहले जब मैं घर आया था, तब मेरी बहन लक्ष्मी की एक सहेली ऋचा अपनी छोटी बच्ची के साथ मेरे घर पर थी। जिसे मैं पहली बार देख रहा था। पर उसके बारे में जानता था, फोन पर बात भी कभी कभी हो जाती थी। बहन ने ही पहली बार बात कराई थी।
घर पर माँ पापा ,बहन और एक छोटा भाई रहते थे।
मैंने हमेशा की तरह माँ पापा और बहन के पैर छुए। बहन और भाई ने मेरे पैर छुए तो उसने भी आकर मेरे पैर छुए तो मैं चौंक गया।
मैंने लक्ष्मी से पूछा तो उसने ऋचा के बारे में बता दिया और ये भी कि आप दोनों तो जानते हैं न एक दूसरे को।
मैं चौंक गया-मैं कैसे जानूंगा भला?
अरे भैया मैंनें ही तो बात कराई थी, एक दो बार। फिर तो ये खुद ही दो तीन बार आपसे बात करने की कोशिश की थी। लेकिन आपने बात तो की, मगर इतना रुखा व्यवहार किया कि बेचारी डर ही गई।
मैं सिर खुजाने लगा, क्योंकि मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या बोलूं?
क्या हुआ? भाई साहब। आप सबसे ऐसा ही व्यवहार करते हैं क्या? ऋचा ने मुझसे पूछा
नहीं ,ऐसी कोई बात नहीं है, बस यूं ही….।
कोई बात नहीं, तो फिर…….अब क्या कहा जा सकता है।
अरे भाई, अब छोड़ो इन बातों को। दो दिन हैं तुम्हारे पास।जी भरकर कोस लेना। अकेले पेट न भरे तो लक्ष्मी को भी साथ में ले लेना।
ऋचा कुछ बोलती उसके पहले लक्ष्मी भड़क गई, आप भी भैया ऐसी बात बोलते हो कि बस….।

सारी। मैंने कान पकड़ लिए। दोंनो खिलखिला कर हंस पड़ीं।
रात खाने के बाद हम तीनों साथ बैठे।
मैंने ऋचा से पूछा कि बताओ क्या बात है? कोई जोर जबरदस्ती नहीं है। अगर तुम चाहो तो पूरी बात साफ शब्दों में बता सकती हो। हालांकि लक्ष्मी ने काफी कुछ बताया है, मगर मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ।
मैंने देखा कि ऋचा की आँखों में आंसू छलक आये।
कुछ पलों तक छाये मौन को मैंने ऋचा के सिर पर हाथ रखकर आश्वस्त करते हुए कहा कि हिम्मत रखो और बोलो
क्या बोलूँ, कैसे बोलूँ? मम्मी तो थी नहीं, पापा के भी न रहने के बाद हर ओर अँधेरा ही नजर आता है।
देखो जब तक कुछ बोलोगी नहीं, तो कैसे पता लगेगा? समस्या है तो समाधान भी होगा।
नहीं भाई साहब। मैं कुछ नहीं बोल पाऊंगी।
कोई बात नहीं। जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं यह कहते हुए सोने चला गया।
भोर में लगभग चार बजे मुझे मुझे अपने पैरों पर पानी की कुछ बूंदें गिरने का आभास हुआ, मैंने आँखें खोली तो सामने ऋचा रोती दिखी। मैं उठकर बैठ गया।
मैंने उसका हाथ पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया। उसके आँसू पोछें, हिम्मत बंधाया। समझाया तब उसने मुझे बताया कि उसकी शादी को छः साल बीत गये। पहले एक डेढ़ वर्ष तो सब ठीक था।लेकिन फिर इनकी संगत ऐसी बिगड़ी कि मेरी जिंदगी नर्क बन गई। घर वालों ने भी इन्हें अलग कर दिया। खुलेआम एक औरत घर ले आये।विरोध करने पर मारपीट करने लगे। एक दिन तो बेटी को ही पटककर मारना चाहा, क्या क्या कहूँ ? आप जैसे लक्ष्मी के भाई हो, वैसे ही मेरे भी हो।शर्म आती भाई साहब लेकिन बता देती हूँ, जब मुझे वेश्या बनाने की कोशिश करने लगे, तो विवश होकर बेटी की खातिर मुझे घर छोड़कर आना पड़ा। मायके के नाम पर सिर्फ घर है।वहां भी मैं सुरक्षित नहीं हूँ। कभी यहां कभी वहां, दर दर की ठोकरें खाती फिर रही हूँ। अपनी चिंता नहीं है, मगर बेटी का मुँह देखती हूँ, तो विवशतावश जीने के लिए मजबूर हो जाती हूँ।
ऋचा के एक एक शब्द पिघले शीशे की तरह कानों में रेंग रहे थे। मैं स्वयं अपने आँसू रोकने में नाकाम था। फिर भी कैसे भी खुद को संभालते हुए ऋचा के आँसू पोछें। वो विह्वल होकर मेरे गले लगकर रोती रही।
तभी दरवाजे पर लक्ष्मी दिखाई दी, मैंने इशारे से उसे ऋचा को संभालने का इशारा किया। मैंने देखा कि उसकी आँखों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी।
लक्ष्मी  ऋचा को संभालने की कोशिश में उससे लिपटकर रोने लगी।
मैं दोंनों को रोता छोड़कर बाथरूम गया और मुँह हाथ धुलकर खुद ही तीन कप चाय बना कर ले आया। दोंनो को मुँह धुलकर आने का आदेश दिया।
दोनों यंत्रवत गई और  वापस आ गई। हम तीनों ने अपने अपने कप उठा लिए।
अब मैंने ऋचा को संबोधित करते हुए कहा कि सबसे पहले तो तुम ये सोचो कि तुम मुझ पर भरोसा कर पाओगी? क्योंकि तुम्हारे और बच्ची के लिये कुछ अव्यवहारिक कदम भी उठाने पड़ेंगे। क्या तुम उसे सहन कर पाओगी? अगर हाँ तो ठीक है, मैं कोशिश करुंगा कि तुम्हारे लिए जो भी बेहतर हो, वो हो सके।दूसरा रास्ता यह है कि तुम्हें मरने की बड़ी जल्दी है, तो बच्ची की चिंता हम पर छोड़कर आत्महत्या कर लो।
लक्ष्मी चौंक गई-ये क्या बोल रहे हो भैया।
ठीक बोल रहा हूँ बेटा। तुम्हें भी इस बेवकूफ लड़की ने ये नहीं बताया होगा कि इस पर तीन बार हमले हो चुके हैं, एक बार इसके अपहरण की भी कोशिश बच्ची के साथ, और सुनो तुम दोनों, इसके पापा की मौत दुर्घटना नहीं हत्या थी।
ये क्या कह रहे हैं आप भाई साहब।
मैं ठीक कह रहा हूँ, तुमसे रुखा व्यवहार भी इसीलिए करता रहा कि सच तक बिना तुम्हारी जानकारी में आये पहुंच सकूँ। इसमें मदद की मेरे एक मित्र ने।तुम्हारी जानकारी के लिए ये भी बता दूं कि तुम्हारा पति नशीले पदार्थों की तस्करी में कल ही गिरफ्तार हो चुका है।
ऋचा और लक्ष्मी के मुँह से बोल नहीं निकल सके।
लक्ष्मी ने जब तुम्हारे बारे में बताया था, तभी मुझे लगा कि कुछ करना पड़ेगा। तुमने यही कहा है न कि मैं लक्ष्मी के जैसा ही तुम्हारा भी भाई जैसा हूँ। लेकिन मैंने सोच लिया था कि तू मेरी  दूसरी लक्ष्मी है। लक्ष्मी को सब पता है। तूने जो भी मुझे बताया वो एक एक शब्द मुझे पता है। तू समझती है कि तेरे पति को घर वालों ने अलग कर दिया, लेकिन ऐसा नहीं है, सब मिलकर साजिश कर रहे हैं और तुझे इस्तेमाल भी करना चाहते थे।यह अलग बात है कि तुम अभी तक सुरक्षित हो।
अब आप बताओ न कि मैं क्या करुँ?
फिलहाल तो तुम दोनों जाओ, नाश्ते का इंतजाम करो ,तब तक मैं भी नहा धोकर तैयार होता हूँ।
मगर—–।

अगर मगर की सारी चिंता छोड़ो। सब ठीक कर दूंगा।भरोसा रख सकती हो तो रखो, वरना जो उचित समझो करो। मैं क्या हूँ, कैसा हूँ , इस चक्कर में न उलझो। तुम्हारे लिए जो अच्छे से अच्छा कर सकता हूँ, वो सब मैं करुँगा। कौन क्या सोचता है, तुम क्या सोचती हो, मुझे ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। हाँ तुम्हें लगे कि मेरे किसी कदम से तुम्हारी खुशियां, तुम्हारा भविष्य प्रभावित हो सकता है ,तो जरूर बोल देना।
लक्ष्मी ने ऋचा का हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा-तू चल, मेरा भाई पागल है, वो वही करेगा, जो उसका मन करेगा। मगर एक बात तय है, जो कहेगा, उसे करके ही छोड़ेगा।
उसके बाद तो मैंने ऋचा की समस्याओं को काफी हद तक सुलझा दिया है,अब तो नौकरी भी कर रही है, भविष्य की सुरक्षा का डर कम हो गया है। लेकिन बहुत मौन रहती है, शायद ऐसी ही है।लक्ष्मी भी उसके मौन को लेकर परेशान रहती है। लेकिन उसके हालात को देखकर उस पर किसी तरह का दबाव नहीं डाला जा सकता। मगर अभी भी मुझे कुछ कर्जबोध जैसा आभास हो रहा है। जिसका उत्तर फिलहाल नहीं मिल रहा है।
अब तक मैं सचिन का एक एक शब्द बड़े ध्यान से सुन रहा था।
मैंने सचिन को पत्रिका फिर से पकड़ाते हुए कहा -आप मेरी कहानी को तब तक बार बार पढ़िये, जब तक आपको आपके कर्जबोध का अहसास न हो जाय। आपके प्रश्न का उत्तर मेरे कर्जबोध में ही मिलेगा। मेरा नंबर कहानी के साथ है।जब उत्तर मिल जाए तो फोन जरूर कीजिएगा।
तब तक ट्रेन मेरे गंतव्य प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और सचिन से हाथ मिलाकर मैं नीचे उतर गया।
खिड़की से मैंने सचिन को पानी की बोतल और खाने का कुछ सामान दिया, जिसे उसने बड़ी श्रद्धा से स्वीकार किया।ट्रेन पुनः अपने गंतव्य की ओर बढ़़ने लगी । जब तक मैं दिखता रहा, सचिन हाथ हिला हिलाकर मुझे विदा देता रहा और मैं भी प्रत्युत्तर में हाथ हिलाता रहा।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921