दर्द का गीत
रोदन करती आज दिशाएं,मौसम पर पहरे हैं ।
अपनों ने जो सौंपे हैं वो,घाव बहुत गहरे हैं ।।
बढ़ता जाता दर्द नित्य ही,
संतापों का मेला
कहने को है भीड़,हक़ीक़त,
में हर एक अकेला
रौनक तो अब शेष रही ना,बादल भी ठहरे हैं ।
अपनों ने जो सौंपे वो,घाव बहुत गहरे हैं ।।
मायूसी है,बढ़ी हताशा,
शुष्क हुआ हर मुखड़ा
जिसका भी खींचा नक़ाब,
वह क्रोधित होकर उखड़ा
ग़म,पीड़ा सँग व्यथा-वेदना के ध्वज नित फहरे हैं ।
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं ।।
नए तंत्र ने हमको लूटा,
कौन सुने फरियादें
रोज़ाना हो रही खोखली,
ईमां की बुनियादें
कौन सुनेगा,किसे सुनाएं,यहां सभी बहरे हैं ।
अपनों ने जो सौंपे है वो घाव बहुत गहरे हैं ।।
बदल रहीं नित परिभाषाएं,
सबका नव चिंतन है
हर इक की है पृथक मान्यता,
पोषित हुआ पतन है
सूनापन है मातम दिखता,उड़े-उड़े चेहरे हैं ।
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं ।।
— प्रो. (डॉ) शरद नारायण खरे