मुक्तक/दोहा

मुक्तक

लज्जा पुरूषों का गहना, आज समझ में आता है,
नग्न वेश में कोई पुरुष, सबके सम्मुख नहीं आता है।
अर्धनग्न नारी घुमें, नहीं लज्जा को कोई भान उन्हें,
फिर भी निर्लज्जता का दोषी, पुरूष ही कहलाता है।
मर्यादा में रहते हमने, अक्सर पुरूषों को देखा है,
कष्ट पड़ा तो साथ निभाते, हमने ग़ैरों को देखा है।
पुरूष निभाता साथ पुरूष का, नारी का सम्मान,
महिला ही महिला की दुश्मन, सच जग ने देखा है।
अर्ध नग्न नारी घूमें, कर मर्यादाओं को तार तार,
विज्ञापन की वस्तु बनती, निजत्व को तार तार।
आगे बढ़ने की अंधी दौड़, सब कुछ पाने की चाह,
आज़ादी का बिगुल बजा, संस्कारों को तार तार।
— अ कीर्ति वर्द्धन