धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

स्वयं में ईश्वर को देखना ही ध्यान है

किसी ने कितनी सुंदर बात कही-
“खुद में खुदा को देखना ध्यान है
दूसरों में खुदा को देखना प्रेम है
खुदा को सबमे देखना ज्ञान है।”
वास्तव में यदि खुदा को अर्थात  भगवान को जानना है, समझना है,उसकी सत्ता को अनुभव करना है तो हमे अपने अंदर प्रवेश करना होगा।अपने अन्तर्मन में जाना होगा।
आपने मन को उस आत्मा में केंद्रित करना होगा,जहाँ पर परमात्मा का वास माना जाता है।और इस प्रकार की जब प्रक्रिया की जाएगी।और सतत की जाएगी।तो यह प्रक्रिया कहलायेगा ध्यान।बिना ध्यान के उस ईश्वर को,भगवान को,खुदा,को अल्ला,को नही जाना जा सकता।
हमारा मन पल-प्रतिपल अनगिनत बार, कई बार सारे बम्हाण्ड का सैकड़ों बार परिभ्रमण करता है।मन बड़ा चंचल है।चलायमान है।अस्थिर है।कभी स्थिर नही रहता।पर इससे उसे क्या मिला ?कुछ नही।मात्र और मात्र एक अशांति,व्याकुलता,अधीरता।यह तो हमारे मन की बात हो गई।अब बात करते हैं तन की, तो हमारा तन यह शरीर भी न जाने कहाँ-कहाँ नही भटकता। कौन देश,परदेश,नगर ,शहर,मंदिर,मस्जिद,चर्च,
गुरुद्वारा,तीरथ-धाम।तो आखिर में वह किसलिए जाता है? कुछ पाने के लिए।
पर मिला क्या? कुछ नही।
तो कुछ पाने के लिए ध्यान आवश्यक है।
और ध्यान कब होगा? जब हम अपने अंदर अपनी अंतरात्मा में खुदा,को भगवान को देख पाएंगे।अनुभव कर पाएंगे। देख पाने का तातपर्य यह है कि सबसे पहले हम अपने अंदर यात्रा करें।अपने स्वयं के अंदर प्रवेश करें।स्वयं को जाने।स्वयं से बात करें।स्वयं से प्रश्न करें।अपने बारे में चिंतन करें, मनन करें।जब तक हम अपने आप को नही जान पाएंगे।हम इस जीव, जगत,ब्रम्ह,आत्मा,परमात्मा,किसी को नही जान पाएंगे।उपरोक्त सभी को जानने के लिए ध्यान,धारणा,समाधि,अति आवश्यक है।इसके बिना ईश्वर को जान पाना सम्भव नही है।और जब हम उपरोक्त क्रिया ध्यान के द्वारा अपने को जान लेंगे,तभी हम दूसरों को भी समझ पाने की कोशिश मात्र करेंगे।जानने की कोशिश में सफल अभी नही हुए।कोशिश की प्रक्रिया में होंगे।और जिस दिन हम जान जाएंगे।तब समझ लीजिए।हमारे अंदर ईश्वर है।और उस ईश्वर को हमने दुसरो के रूप में देखना शुरू कर दिया।और जब ऐसा होने लगे तो इसे कहते हैं-दूसरों में खुदा को देखना है। तब इसे कहते हैं प्रेम का सूत्रपात होना।
इसके बाद होता है अंतर्दृष्टि विकास।जैसे खुद में खुदा को देखना।और दूसरों में खुदा को देखना ।खुदा को सबमे देखना।अर्थात खुदा का अनुभव करना।जब खुदा का अनुभव होता है तो प्रेम जागृत होता है।और जब प्रेम जागृत होता है तो सबमें ईश्वर का रूप दिखाई देता है।और जब ईश्वर रूप दिखाई देगा तो प्रेम भावना जागृत होगी।और प्रेम भावना जागृत होती है।तब हममें ज्ञान का विकास होगा।और इसे ही कहेंगे आत्मज्ञान।अर्थात खुद में खुदा को,ईश्वर को देखना ही ध्यान ही कहलाता है।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578