गीत
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।
हिमगिरि के घर से निकली है,
सिंधु – सेज पर रम जाती।।
अनथक चली जा रही अविरत
आती हैं नित बाधाएँ।
अपगा होकर चली जा रही,
कितने भी संकट आएँ।।
लक्ष्य एक ही पिया मिलन है,
सबकी क्षुधा बुझा पाती।।
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।।
पशु, पक्षी, मानव या फसलें,
अभिसिंचन से हर्षाते।
साधु, संत, जन को नहलाती,
तटिनी – खेल हमें भाते।।
हरियाली फैली खेतों में,
कांति अधर में भर लाती।
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।।
गंगा , यमुना ,सरयू कितनी,
पावन जल की सरिताएँ।
भारत की जीवन – रेखा हैं,
जीव, जंतु, नर की माएँ।।
मीन करे क्रीड़ाएँ सरि में,
आँचल में ले मुस्काती।
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।।
करे प्रतीक्षा खोल हृदय को,
सागर, आएँ सरिताएँ।
स्वागत करने को आतुर है,
बाँहों में भर अपनाएँ।।
लहरों के मिस बुला रहा है,
लगतीं रवि – किरणें ताती।
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।।
लगता सागर कभी क्रोध में,
तट से विचि टकराती है।
घोंघे , सीप पटकती बाहर,
लौटें शांत रिझाती है।।
‘शुभम्’ सभी का मान बढ़ाता,
सरिता अंग समा जाती।
इठलाती बलखाती सरिता,
जाती है नित मदमाती।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’