लघुकथा

आतंक

बीते दो वर्षो ने समय की गति ही अवरुद्ध कर दी! जिंदगी पटरी पर आने का नाम ही नहीं ले रही थी. गायत्री कभी – कभी अपने को बहुत असहाय पाती जब विभोर को वह इतना लाचार देखती है. सुनो जी कोरोना महामारी ने सारा बिजनेस तो चौपट कर दिया बचत का धन भी समाप्त है और काम तो अब नाकाम दिख रहा है. अपने सिर पर तो छत भी अपनी नहीं है. कुछ नया सोंचना और करना पड़ेगा. आतंक के साये तले कब डर कर जी सकेंगे. संयम और दृढ इच्छा शक्ति के साथ हौसला हो तो सब कुछ पाया जा सकता है. यूं नाकारात्मक विचारों की ज़द में पड़े रहने से कुछ नहीं होना है. एक बेटी है उसको पढ़ाना लिखाना संवारना भी तो है.
पर विभोर तो किसी और तंद्रा में एक हाथ से दूसरे हाथ की अंगुलियों को मोड़ रहा था. उसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. हालातों ने उसे मौन कर दिया था. दो ही भाव उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन कर रह गए थे. भीषण क्रोध या मौन l कभी बेबात गायत्री पर बरस पड़ना तो कभी बेटी पर. गायत्री मनोबल बढ़ाने का भरसक प्रयास करती. वह हमेशा समझाती दुख के बाद सुख और रात के बाद दिन अवश्य आता है.ऐसे भाव समेटे किस्से कहानी सुनाती.
पर विभोर को कुछ भी रास नहीं आता था. आए भी कैसे? बेटी के स्कूल कि फीस घर का किराया, बिजली का बिल सबका भार बढ़ता जा रहा था. क्या होगा ? कैसे होगा? भविष्य में भय गहरा रहा था. गायत्री के अतिरिक्त किसी अपने ने भी तो विभोर का मनोबल बढ़ाने की कभी चेष्ठा नहीं की हाँ ! कभी – कभी लोगो ने परिस्थितियों के लिए और भी डरा दिया था हौसला देने वाले तो बस एक दो ही थे. गायत्री सकारात्मक सोंच दृढ मनोबल वाली महिला थी. हालाकि बीते दो वर्षो ने कई बार उसे भो तोड़ने की कोशिश की पर उसने स्वयं को कभी टूटने नहीं दिया. पिता ने सदा आशावान रहना जो सिखाया था.
मम्मा सुनो! सुनो ना ! तुम सुनती क्यों नहीं ? कन्धा पकड़ के दीक्षा गायात्री को हिला देती है.
क्या बात है?
ये चित्र कब से बना रही हूँ बन ही नहीं रहा.
बस इतनी सी बात ! चित्र को थोड़ी देर ध्यान से देखो और फिर बनाने का प्रयास करो साथ ही गाती जाओ….. ‘कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ‘……..
कुछ देर बाद आवाज़ आती है यह देखो मम्मा मैंने बना लिया l वह फिर उछलती कूदती गाए जा रही थी …….. नन्ही चींटी दाना लेकर चढ़ती सौ सौ बार फिसलती है……….. आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं जाती. कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.
विभोर के कानो में बेटी की आवाज़ गूँज रही थी. वह एकाएक उठकर बेटी के पास आता है बेटी के हाथ में एक चित्र था जो हू ब हू किताब के कवर पृष्ठ पर बने चित्र जैसा था. विभोर आवाक रह जाता है चित्र थोड़ा मुश्किल था. विभोर बेटी के दोंनो हाथों को थाम कर नाचने लगता है. तभी गायत्री आ जाती है तीनों एक स्वर में गाने लगते हैं… कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.
शाम हो रही थी – विभोर गायत्री के साथ छत पर आ गया था.सूर्य देव अस्तचल में जा रहे थे l उन्हें छिपता देख गायत्री बोल पड़ती है कल नया सूरज स्वर्णिम आभा लेकर आएगा. विभोर में आए परिवर्तन को देख मन ही मन ख़ुश हो रही थी. कवि की दो पंक्तियों से हताशा के आतंक का नाश हो चुका था.
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल ‘

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016