कविता

कुंठित नारियों की पीड़ा कैसे लिखूँ

कुप्रथाओं की जंजीरों में जकड़ी गई नारियों की वेदना लिखूंगी एक दिन ढ़लते युग की क्षितिज पर बैठे या मांग सजी विधवाओं की ललक लिखूँगी…
हाँ नहीं आया अभी वक्त, बंद पड़ी है बहुत सारी नारियां कुंठित और दयनीय हालात की मारी दहलीज़ के भीतर…
ऐसी नारियों के सरताज को शर्मिदगी खा क्यूँ नहीं जाती जो दमन को अपना अधिकार समझते रौंदते रहते है मासूमों के अरमानों को…
सुबकते सपने, बिलखती इच्छाएं, बलात्कार के चुभते नश्तर और दहेज रुपी दानव से शापित आत्माओं को महसूस कर रही है मेरी कलम की स्याही..
कीड़ों की तरह रेंगते है सारे अत्याचार मेरे दिमाग के कोनों में जो सहता आ रहा है सदियों से मासूम नारियों का एक समूह..
युगांतर से चली आ रही विधवाओं की पीड़ लिखूँ, या पितृसत्तात्मक वाली सोच की महिमा लिखूँ कालजयी वेदनाओं का सार लिखना है मुझे…
ख़त्म हो कभी वहशिपन दरिंदों का तो पिड़ीता के भीतर दहकती आग से पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में आज़ादी का गान लिखूँ…
भीख मंगे धनवानों की छोटी सोच का सरमाया कैसे ढ़ालूँ शब्दों में, जला देते है दहेज की ख़ातिर जो किसीके जिगर का टुकड़ा उन पाशवीओं की महिमा कैसे लिखूँ…
दूर दिसती है वो भोर जिस भोर को प्रज्वलित करेगा कोई सुवर्ण युग, उस युग में आँखें खोलेगी हर पिड़ीता और देखेगी एक नया झिलमिलाता नया आलोक…
संभवामि युगे युगे का वचन देने वाले कृष्ण को महसूस क्यूँ नहीं होता वेदनाओं का भार, हे जादुगर अब तो जन्म लो हरो पृथ्वी से अबलाओं की सिसकियों का सार…
लिखनी है मुझे हर होठों की मुस्कान, लिखनी है मुझे उम्मीदों की आँधी और आज़ादी की अनुगूँज, उस युग की तलाश में भटक रही है मेरी कल्पनाओं की पुकार…
हे समाज के ठेकेदारों अब तो साहित्य के पन्नों पर स्त्री विमर्श की पँक्तियों को ढ़ालने से विराम दो, कब तक कलम खून के आँसू उगलती रहेगी? स्वर्ण अक्षरों से नारी गान लिख पाऊँ ऐसी स्याही तो दो।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर