कविता

मोहब्बत की दास्तान

मैंने जिसे चाहा , वह चाहा किसी और को ‌,
जिसके लिए मैं तड़पी , वह तड़पा किसी और के लिए  ,
मैंने जिसे बेपनाह प्यार किया , वह प्यार किया किसी और को ,
मैं जिसके लिए रोई , वह रोया किसी और के लिए ,
मैंने जिसे चाहा , वह चाहा किसी और को।
एकतरफा मोहब्बत मैंने किया ,एकतरफा मोहब्बत उसने भी किया ,
दर्द दोनों को एक जैसा हुआ,कसूर इसमें दिल का हुआ ,
 मैं जिस पे मर मिटी , वह मर मिटा किसी और पे ,
मैंने जिसे चाहा वह चाहा किसी और को ।
जाने कब मोहब्बत दोस्ती में बदल नहीं लगा ,
धीरे – धीरे अंत : उर  मस्तिष्क में चेतना प्रकाश फैलने लगा ,
उसकी चेतना मुस्कुरा कर कहने लगी  –
थाम लो ! मेरा हाथ , जीवन के पथ पर दूंँगी तेरा साथ ,
अकेले तुम भी ! ना रहो ! अकेले हम भी ! ना रहे ,
दोनों दोस्ती निभाने लगे ,एक दूसरे की आंँखों से अश्क चुराने लगे ,
एक दूसरे में ख़ुशियांँ ढूंढने लगे ,
एक दूसरे का जीवन महकने लगा ,
चेतना ने बयां किया है मोहब्बत की दास्तान को ,
मैंने जिसे चाहा पाया उसी को ,
आप भी ! जिसे चाहो ! पाओ उसी को ।
— चेतनाप्रकाश चितेरी 

चेतना सिंह 'चितेरी'

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