लघुकथा

दीवाली

रवीना बहुत व्यस्त थी, घर के सब सदस्य अपने कामो में लगे रहते थे, दीवाली एक हफ्ते में अपनी चमक दमक फैलाने आ रही है, किसी को ख्याल ही नही रहता। आज अकेले ही बाजार निकल गयी। मॉल जाकर जरूरत की वस्तुएं ली, वहां भी दीवाली की सजावट की सब चीजें लक्ष्मी गणेश जी की मूर्ति, तोरण, दीये, लाइट्स सब मिल रही थी। सब तो उसने ले लिया,पर तभी उसके दिमाग मे काव्या का ध्यान आ गया, कामवाली के साथ कई बार आयी थी और बताया, “आंटी, मेरी मम्मी बहुत सुंदर मूर्ति और दीये बनाती है।”
बस रवीना ने वो मॉल के सुंदर पेंटेड दीये वगैरह नही खरीदे और काव्या के घर जाने की सोची।
एक अलग ही कलात्मक माहौल था, परिवार की दो बहनें और माँ सब दीये तैयार कर रही थी, और काव्या अलग छोटी सी लक्ष्मी, गणेश जी की मूर्तियों को सजा रही थी। उन सबके काम देखकर रवीना चकित थी, धीरे से आवाज़ दी, “काव्या, कैसी हो, तुम तो कलाकार हो, इतनी सुंदर साक्षात देवी जी इस मूर्ति में नजर आ रही हैं।”
“आंटी, आप यहां, कुछ लेना है क्या, आजकल कोई यहां लेने आता ही नही, पर हम बनाते जरूर हैं।”
काव्या की माँ भी आकर रवीना के पैर छूने लगी, उनकी झोपड़ी से गरीबी झांकने की कोशिश कर रही थी, यहां कोई आया है, शायद मेरी परेशानी दूर हो। और रवीना ने उसी क्षण सोच लिया कि मुझे काव्या को ऊँचाई के स्तर पर ले जाना है। उसने बहुत से दीये भी खरीदे और काव्या से कहा, “कल मेरे घर आकर मिलो।”
दूसरे दिन मां के साथ काव्या पहुँची, रवीना ने अपने घर के कोने वाले छोटे से कमरे को आर्ट वर्कशॉप का रूप दिया और काव्या को समझाने लगी, “तुम लोग दीये और मूर्तियां घर से बना कर लाओ, मैं हर तरह के रंग, ब्रश लाकर रखूंगी, यहां पर अलमारियों में सजाओ, मैं टैग लगाऊंगी, बाहर “काव्या आर्ट सेन्टर” का बोर्ड लगेगा। तुम लोग काम करो, पूरे वर्ष हर त्योहार की तैयारी करो, मैं सिर्फ तुम्हारी सहायता करूँगी, ईश्वर की दया से मेरे पास कोई चीज की कमी नही है।”
काव्या और उसकी माँ आष्चर्यचकित हो उस लक्ष्मी को नमन कर रही थी, “ईश्वर भी ऐसी मूर्ति कम ही बनाता है।”
— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर