गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

चाहो तो देख लो मेरा फिर इम्तहान लेकर,
हर बार ही मिलूंगा मैं दीनो-ईमान लेकर।
अब बिक नहीं सकेगा सामान नफ़रतों का,
जाओ कहीं तुम और ये अपनी दुकान लेकर।
जब आसमान में भी ज़हर बो दिया है हमने,
जाएं कहाँ परिंदे ये अपनी उडान लेकर।
बच्चों से अपने आज फिर नज़रें मिलाएं कैसे,
घर लौट आए जब हम केवल थकान लेकर।
है दौर वबा का अभी हर सिम्त्त इस जहां में,
हर आदमी खडा है आफत में जान लेकर
नाखुश हैं जिनके पास रखे दो जहान भी,
‘जय’ खुश हैं फ़कत एक टुकड़ा आसमान लेकर।
– जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से