सामाजिक

संस्कार

संस्कारों को व्यवहार में लाना मानवता का पर्याय है। जिसे हम जिस स्तर पर जितनी मात्रा में स्वयं एवं बच्चों में विकसित कर सकें तो उतने ही अनुपात में हम देवत्व की ओर बढ़ सकेंगे। जब हम इस दिशा में विकसित होगें तभी हमारे राष्ट्र और समाज का सर्वांगीण विकास संभव है। यदि हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को वैदिक संस्कारों से परिपूर्ण करेंगे तो उनका सामाजिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक विकास पूर्ण रूप से होगा और अपने राष्ट्र को विश्व में सबसे आगे ले जाने में सक्षम होगें। जो मानदण्ड आज से हजारों साल पहले चलन में थे, वे अब असामान्य बातें हो गयी है क्योंकि हम अपने दैनिक व्यवहार एवं आचरण में वैदिक संस्कारों को त्याग कर घातक पश्चिमी सभ्यता को अपनाते जा रहे हैं। जिसके कारण हम अपने संस्कारों और संस्कृति से दूर होते चले जा रहा हैं। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा अगर हम अब भी जाग जाये और वैदिक संस्कृति को अपनाये तो हमारा एवं हमारे राष्ट्र का भविष्य पुनः सुनहरा हो जायेगा। हम किस तरह के मनुष्यों के साथ रहते है, इस पर भी विचार करना अति आवश्यक है। क्योकि कभी-कभी न चाहते हुये भी हमारे कदम गलत रास्तों की तरफ निकल पड़ते हैं। अगर हमारा धैर्य और संयम सुदृढ़ है, तो सफलता हमारे निकट होगी। हम अपनी संचित उर्जा रचनात्मक कार्यों में लगायेंगे। जिन से हम स्वयं के कल्याण के साथ समाज और देश का कल्याण कर सकें। नकारात्मक विचार हमारी प्रगति कमजोर करते रहते है। इनसे बचना ही हितकर होगा। धैर्य और संयम की जरूरत हमें अधिकतर नकारात्म विचारों के परिणाम स्वरूप पड़ती है जिनसे बचा जा सकता है। जब हम वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करेगें तो हमेशा अच्छा सोचेगें तथा व्यवहार में भी अच्छा करेगें। जब हम अपने जीवन में सही गतल का भेद समझने का सामर्थ्य अर्जित कर लेगें तो हमें अपने वास्तविक जीवन का बोध होगा। जीवन को सही दिशा एवं गति मिलेगी। संस्कारों की प्रथम पाठशाला हमारा परिवार होता है। संस्कार विहीन जीवन का कोई अर्थ नही होता। मानव जीवन के उज्ज्वल भविष्य की आधार शिला संस्कारों पर ही रखी है। वैदिक परम्परा में मानव को संस्कारित करने का कार्य माता के गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाता है। माता ही मानव की पहली गुरू और गर्भ ही प्रथम पाठशाला है। दूसरा गुरू पिता होता है और आचार्य वह अन्तिम गुरू होता है जो बच्चे की रूचि के अनुसार उपयोगी शिक्षा देकर संस्कार वाले उत्तम नागरिक बना कर समाज के लिए एक उपयोगी और लाभप्रद घटक बनाकर प्रस्तुत करता है। जब से समाज में उत्तम आचार्यों का स्थान नहीं रहा तब से आधुनिक समाज में विकृतियों आ गयी हैं। उत्तम आचार्यो के अभाव में आज बालकों को उत्तम संस्कार नहीं मिल रहे जिस कारण आज का युवा गलत मार्ग पर चल रहा है। यदि आज युवाओं को सन्मार्ग पर चलाना है सही संस्कार देने की जरूरत है। शुद्ध संस्कार ही जीवन को सार्थक बना सकते है।
— आचार्य सोमेन्द्र श्री

सोमेन्द्र सिंह

सोमेन्द्र सिंह " रिसर्च स्काॅलर " दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली शास्त्री सदन ग्राम नित्यानन्दपुर, पोस्ट शाहजहांपुर, जिला मेरठ (उ.प्र.) मो : 9410816724 ईमेल : somandrashree@gmail.com